________________
२१८/योग-प्रयोग-अयोग
विमुख होने के लिए हैं । यथार्थ सम्यक बोध से पदार्थों का उपभोग नहीं, उपयोग करना है। साधन सामग्री उपभोग के लिए निर्माण नहीं हुई है, उपयोग के लिए हुई है उपयोगो धम्मो-उपयोग ही धर्म है और उसमें स्थिर रहना ही धर्म-ध्यान है।
धर्मध्यान धर्म-ध्यान का स्वरूप
धर्म का अर्थ है स्वभाव । प्राकृतिक नियमानुसार प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव होता ही है। जैसे धम्मे वत्थुसहावो या धर्मों हि वस्तुयाथात्भ्यं इस आर्ष वाक्यानुसार धर्म चिन्तन को धर्मध्यान कहा है।
तीर्थंकरों ने सम्यग् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् आचार को धर्म कहा है ।२४ उस धर्म चिन्तन से युक्त जो ध्यान है वह मिश्रित रूप से धर्मध्यान है ।२५
जिस आचरण से आत्मा की विशुद्धि होती है वहाँ मन को स्थिर करना धर्मध्यान
आत्मा का आत्मा के द्वारा, आत्मा के विषय में सोचना चिन्तन करना भी धर्मध्यान है२७
षट्खण्डागम में धर्म और शुक्ल ध्यान को परम तप कहा है (२८
हृदय की पवित्रता से लेश्या के अवलंबन से और यथार्थ स्वरूप चिन्तवन से उत्पन्न ध्यान प्रशस्त ध्यान कहलाता है।
श्रुत धर्म की आज्ञादि स्वरूप के चिन्तन में एकाग्रता को धर्मध्यान कहते हैं तथा श्रुत धर्म और चरित्र धर्म से युक्त ध्यान को भी धर्मध्यान कहते हैं, ३१
२३. कार्तिकानुप्रेक्षा - ४७८ २४. तत्त्वानुशासन - श्लो. ५१, आर्ष (महापुराण) २१-१३३ २५. धर्मादनयेतं धर्म्य - सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थ वा. ९-२८ २६. दशवैकालिक अ. १ वृत्ति २७. तत्त्वानुशासन - ७४ २८. षट्खण्डागम ५, पु. १३, पृ. ६४ २९. ज्ञानार्णव सर्ग ३, श्लोक २७ ३०. समवायांग सूत्र सटीक । सम ३१. स्थानांग सूत्र ४, स्था. १३,
काल लोक प्रकाश सर्ग ३०, श्लोक ४५८