________________
२१६ / योग-प्रयोग-जयोग
अतिरिक्त तीन आर्तध्यान संभवित हैं। असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव अविरत कहलाते हैं, संयतासंयत जीव देशविरत कहलाते हैं तथा प्रसाद से मुक्त क्रिया करने वाले जीव प्रमत्त संयत कहलाते हैं। आर्तध्यान में लेश्या
आर्तध्यान में तीन लेश्या होती हैं-१. कृष्ण, २. नील और ३. कापोत किन्तु रौद्रध्यान की अपेक्षा मंद होती है। आर्तध्यान का फल
१. संसार वृद्धि, २. कर्म बन्ध का कारण, ३. भवभ्रमण, ४. तिर्यंचगति
इन चार प्रकार में से कोई द्वेष का, कोई राग का, कोई मोह का कारण होता है, अतः जिस व्यक्ति में ये चार लक्षण दिखाई दें उसे आर्तध्यानी समझना चाहिए । राग-द्वेष और मोह संसार का कारण है और आर्तध्यान तिर्यंचगति का कारण है ।२० तिर्यंचगति संसारवृक्ष का मूल है और आर्तध्यान संसार वृक्ष का बीजं है।२१.
कोष्ठक नं. २४ आर्त ध्यान
मनोज्ञ
अमनोज्ञ
अनुत्पत्ति संप्रयोग संकल्प
अनुत्पत्ति विप्रयोग संकल्प
बाह्य
आध्यात्मिक
बाह्य
आध्यात्मिक
चेतनकृत अचेतनकृत शारीरिक मानसिक चेतनकृत अचेतनकृत शारीरिक मानसिक रौद्र ध्यान
जहाँ चित्त क्रूर, निर्दय और हिंसात्मक होता है स्वार्थ वृत्ति और विनाश की भावना प्रबल होती है तथा शत्रुओं के प्रति महाद्वेष उत्पन्न होता है उसे रौद्र ध्यान कहते
२०. सर्वार्थसिद्धि - ९-२९ राजवार्तिक ९-३३-२६२७, ज्ञानार्णव-२५,४२ २१. अध्यात्मसार - ध्यानाधिकार गा.८९ महापुराण २१-३८, ज्ञानार्णव २५-४० चारित्रासार - १६९-३