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२१० / योग-प्रयोग-अयोग
१. विक्षिप्त चित्त और विकल्पयुक्त और बाह्य शब्दादि विषयों २. यातायात चित्त को ग्रहण करने वाला होता है । ३. श्लिष्ट चित्त और अध्यात्म ध्येयरूप विषय को ही. ग्रहण करने वाला ४ सुलीन चित्त
होता है । बाह्य विषयों को नहीं । योग के अभ्यास की प्राथमिक अवस्था में कभी बाह्य विषयों में जाने वाला और कभी ध्येय में स्थिर होने वाला “यातायात" चित्त इष्ट माना गया है। क्योंकि, सतत अभ्यास से शनैः शनैः चंचलता दूर होने पर स्थिरता आने से 'यातायात' चित्त ही क्रमशः श्लिष्ट और 'सुलीन' हो जाता है तथा निरालम्ब ध्यान, समरस भाव और परमानन्द की प्राप्ति होती है।
उपर्युक्त विश्लेषण का सारांश यह है किउपाध्याय यशोविजयजी ने चित्त के पाँच भेद बताये हैं -
१. क्षिप्त चित्त - विषयों में मग्न बहिर्मुख और रोग से ग्रस्त २. मूठ चित्त - इस लोक और परलोक सम्बन्धी विवेक रहित, क्रोधादि ग्रस्त । ३. विक्षिप्त चित्त - किंचित् रक्त किंचित् विरक्त ४. एकाग्र चित्त - समाधि में स्थिर ५. निरुद्धचित्त - स्थिरीकरण का अंतिम प्रयोग
इस प्रकार योगसार में एकाग्र चित्त का विशेष महत्त्व होने से साधक को चाहिए कि चल चित्त का निरोध करने का प्रयत्न करे और उसे निरन्तर अभ्यास से निश्चल बनाये। ध्यान की परिभाषा
आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में ध्यानंतु विषये तस्मिन्नेकप्रत्ययसंतिति तथा आचार्य भद्रबाहु के शब्दों में चित्तस्सेमग्गया इवइ झाणं चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना, एकाग्र करना ध्यान है।
उपर्युक्त परिभाषा से प्रतीत होता है कि मन को एकाग्र करना ही ध्यान है। प्रश्न है मन की चंचलता को समाप्त कैसे करें, एकाग्रता कैसे प्राप्त करें ? मन तो अनेक विकारों में बहता रहता है। उसका नियन्त्रण आसानी से नहीं होता । मानसिक
७. योगशास्त्र १२/३-४-५ ८. अध्यात्मसार - श्लोक ४ से ८
अभिधान चिन्तामणि कोष - १/८४ १०. आवश्यक नियुक्ति - १४५६