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२०२/ योग-प्रयोग-अयोग
माध्यस्थ भावना ___अभिधान राजेन्द्र कोश भा., ६, पृ. ६४ में माध्यस्थ को "मध्यरागद्वेषयोरंतराले तिष्ठतीति मध्यस्थः अर्थात् राग और द्वेष दोनों पक्ष में तटस्थ रहने वाला साधक माध्यस्थ है, ऐसा कहा है तथा दर्शन सटीक ५ तत्व के अनुसार तथा अत्युक्तटरागद्वेष विकलतया समचेत सोमाध्यस्थ है। अर्थात् अत्यन्त राग द्वेष की अवस्था में स्थित रहना माध्यस्थ भाव है।
इस प्रकार प्रायः अविनीत, निर्गुण विपरीत वृत्तिवाले हिंसादि क्रूर कर्मों में निःशंक हो उनके प्रति वाचिक और कायिक मौन रहना वह माध्यस्थ हैं।
माध्यस्थ के वैराग्य, शान्ति, उपशम, प्रशम, उपेक्षा, उदासीनता, तटस्थता२३ इत्यादि पर्याय है। इनमें से सांसारिक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होने पर भी अंर्तमन से अलिप्त रहना माध्यस्थ है।
योग समाधि प्राप्त करने के लिये अन्य भावनाओं की तरह जिनकल्प भावनाओं की भी अत्यधिक आवश्यकता है इन भावनाओं द्वारा ही साधक समाधि को प्राप्त कर सकता है। जिनकल्प भावना
जिनकल्प-जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञानुसार मुनि श्रमण, श्रमणीवृन्द तथा श्रावक वर्ग की आचार प्रणालिका, व्रत, नियम आदि की मर्यादा और तदनुरूप समाचारी को कल्प कहा जाता है। आगमों में यह कल्प शब्द श्रमणों की आचार मर्यादा (विधि) समाचारी के लिए ही प्रयुक्त होता है अतः श्रमणों का आचार या कल्प ही जैन योग है। ___ आगम में कल्प दो प्रकार का बताया है, (१) जिनकल्प और (२) स्थविर कल्प। जिनकल्पी जंगल में, श्मशान में, गुफादि स्थानों में एकाकी ध्यान और समाधिस्थ होते हैं और स्थविरकल्पी संघ में और समुदाय में रहकर साधना करते हैं ।
विशेषावश्यक भाष्य में – वक्तषभनाराच संहननवाले नवपूर्व के ज्ञाता, परिषह उपसर्ग को सहने वाले सक्षम योगी को जिनकल्पी बताया ४)
२३. तटस्थता के लिए देखिए-पाइअसदमहण्णवो पृ. ६६८ २४. विशेष आवश्यक भाष्य भाषान्तर भाव १, पृ. १२