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योग-प्रयोग-अयोग/२०१
गुणों के प्रति अनुराग रखना प्रमोद भावना है।
योगशास्त्र की टीकानुसार-"वदनप्रसादादि भि: गुणाधिकेषु अभिव्यज्यमाना अन्त- भक्तिः अनुरागः प्रमोदः । इस व्याख्या में और सर्वार्थसिद्धि की व्याख्या में कोई अंतर दिखलाई नहीं देता। आचार्य श्री हरिभद्र के षोडशक ग्रंथ में प्रमोद के स्थान पर मुदिता शब्द मिलता है।
प्रमोद भाव से महात्माओं में स्थित शम, दम, औचित्य, धैर्य, गांभीर्य इत्यादि गुणों का मानसिक प्रकर्ष बढ़ता है । मानसिक प्रकर्ष से महात्माओं के प्रति उत्कृष्ट विनय, वंदन, सेवा, स्तुति, प्रशंसा इत्यादि कायिक और वाचिक योग की अभिव्यक्ति होती है। नमस्कार महामन्त्र और प्रमोद भावना
नमस्कार महामन्त्र की उपासना से प्रमोद भाव प्रकृष्ट होता है और पुण्यबल का संवर्धन होता है। मंत्र का पुनः-पुनः स्मरण, चिन्तन, ध्यान ये प्रमोद भाव की उपासना का श्रेष्ठ साधन है । अथवा यह महामन्त्र का सार प्रमोद भाव है। भावनमस्कार और प्रमोद भावना
नमस्कार दो प्रकार के हैं- (१) द्रव्यनमस्कार, (२) भावनमस्कार । वचनयोग और काययोग द्वारा होने वाला नमस्कार द्रव्य नमस्कार है और विशुद्ध मन द्वारा होने वाला नमस्कार भावनमस्कार है। यह भावनमस्कार भी प्रमोद भाव रूप ही है। प्रमोद भावना और योग बीज
'योग का प्रारम्भ प्रमोद भावना से होता है अतः प्रमोद भावना को शास्त्रकारों ने योगबीज कहा है। चरम् पुद्गलपरावर्त में साधक हेय, ज्ञेय और उपादेय बुद्धि से कार्य करता है। योग्यता बढ़ने पर सद्गुरु के प्रति आदर बढ़ता है और परमात्मा के साथ मानसिक सम्बन्ध होता है। यह मानसिक सम्बन्ध ही योग बीज है। यह मानसिक सम्बन्ध प्रमोद भाव रूप होने से प्रमोद भाव को भी योग बीज कहा जाता है। कारुण्य भावना
कारुण्य भावना का स्थान जगत के प्रत्येक प्राणी के प्रति और विशेषतः दीन-हीन, दुखी, पीड़ित, दरिद्र के प्रति दया अनुकम्पा के रूप में होता है। ___ करुणा संवेगजन्य और स्वाभाविक दो प्रकार की होती है। संवेगजन्य करुणा लोकोत्तर है। यह करुणा अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तयोगी को होती है।