________________
२०४ / योग-प्रयोग-अयोग
७. आस्रव भावना,
८. संवरा भावना, ९. निर्जरा भावना, ___१०. लोक भावना, ११. धर्म भावना,
१२. बोधि दुर्लभ भावना। इन बारह संवेग भावनाओं का वर्णन अनेक ग्रन्थों में विभिन्न स्वरूपों में उपस्थित किया है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में इन भावनाओं को अनुप्रेक्षा नाम से सम्बोधित किया है तथा प्रशमरति. प्रकरण में द्वादश-विशुद्ध संज्ञा से सिद्ध किया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने भी इन भावनाओं को बृहद्रव्यसंग्रह में द्वादशानुप्रेक्षा से ही प्रकाशित किया है। श्रीमद् वहकेर ने मूलाचार में और सोमदेवसूरि ने यशस्तिलक चम्पू में इन द्वादश भावनाओं का संगठन किया है। शुभचन्द्राचार्य ने भी ज्ञानार्णव में इन्हीं द्वादशभावनाओं का वर्णन किया है जिसको उन्होंने प्रशंसा रूप कहा है। आचार्य हेमचन्द्र ने समभाव की प्राप्ति और निरममत्व भाव की जागृति हेतु द्वादश भावना का योग शास्त्र में वर्णन किया है। स्वामी कार्तिकेय ने अपने कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक ग्रन्थ में इस अनुप्रेक्षा अर्थात् भावना को भव्य जनों के लिए आनन्द की जननी अर्थात् माता का रूप दिया है। उपाध्याय विनयविजयजी कृत शान्तसुधारस में भी इन्हीं द्वादश भावनाओं का सुचारू रूप से संचय हुआ है, जो संसार से विमुक्त कराने वाली है। शतावधानी पंडित श्री रत्नचन्द्र जी म. सा. ने भी इन बारह भावनाओं का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया है। ___ संवेग भावना के बारह प्रकार में से किसी एक ही भावना के प्रयोग से आत्मा योग से अयोग रूप परमतत्त्व को पाता है ; जैसे
आत्मा का संसार में भटकने का मुख्य कारण मोह है। संसार में जितने भी दुख, भय, क्लेश, चिन्ता, शोक, आधि, व्याधि, उपाधिहैं उन सबकी उत्पत्ति मोह से होती
"अणिच्चे जीवलोगम्मि"२९अर्थात् इस जीवलोक में पर्यायरूप से कुछ भी नित्य नहीं है। जन्म, मरण के साथ अनुबद्ध है, यौवन, वृद्धावस्था के साथ अनुबद्ध है और लक्ष्मी, विनाश के साथ अनुबद्ध है३०
अनादि काल से इस जीवात्मा को इस शरीर के प्रति ममत्व रहा है। इस ममत्व के कारण ही वह आत्मा के अनेक कार्यों से दूर रह जाता है। अतः इस ममत्व से मुक्त होने के लिए शरीर की अनित्यता का चिन्तन आवश्यक है।
२८. दशाश्रुतस्कंध - ५/१२ २९. उत्तराध्ययन - १८/१२ ३०. कार्तिकेयानुप्रेक्षा - गा. ५