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३. ध्यान वृत्ति शोधन-एक सफल प्रयोग
१. भावना ध्यानाभ्यास की पूर्व भूमिका, २. ध्यान-विक्षिप्त अवस्था में अनुप्रेक्षा का चिन्तन, ३. काम, क्रोध, मद्र, लोभ का केन्द्र बिन्दु-अशुभ ध्यान ४. सत् चित् और आनन्द का केन्द्र बिन्दु-शुभ ध्यान
ध्यान
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आर्त रौद्र धर्म शुक्ल १. पदार्थों का आकर्षण-विकर्षण,
१. चित्त निरोध, स्थिरीकरण २. मनोज्ञ-अमनोज्ञ संयोग-वियोग,
२. चैतन्य सत्ता का अनुभव, ३. कामान्ध, विषयों में आसक्त, दीनता-निराशा, ३. चित्त निर्मल, जागृत अवस्था,
४. भेदज्ञान की प्राप्ति ।
ध्यान योग ध्यान शब्दार्थ
ध्यान शब्द प्राकृत में झाण रूप में प्राप्त होता है। इसी हेतु स्थानांग सूत्र में स्थान ४-१ में 'चतारि झाणा पण्ण्ता' रूप प्राप्त होता है। आवश्यक सूत्र में यह शब्द चिन्ता, विचार, उत्कण्ठापूर्वक स्मरण, सोच इत्यादि अर्थ में एवं पाईअसद्दमहण्णओ - पृ. ३६६ पर किसी एक पदार्थ में एकाग्र होना या मन का निरोध करके केन्द्रित होना इत्यादि अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
ध्यै चिन्तायाम रूप में यह शब्द "ध्यै" धातु से निष्पन्न हुआ है। इस शब्द में धातु मूलक ध्यान शब्द का अर्थ चिन्तन होता है। वास्तव में ध्यान का चिन्तन अर्थ भी यहाँ व्युत्पत्ति लभ्य है, क्योंकि प्रवृत्ति लभ्य अर्थ तो चित्त निरोध द्वारा आत्मनिरीक्षण या आत्मसाक्षात्कार से होता है। मन का निरीक्षण मानसिक ध्यान है, वचन का निरीक्षण वाचिक ध्यान है और शरीर को स्थिर करना कायिक ध्यान है।
ध्यान शब्द चित्त निरोध का प्रबलतम हेतु है। जब साधक किसी एक विषय पर स्थिर होता है तब चित्त की चंचलता का प्रवाह अनेक विषयों में से किसी एक विषय पर