Book Title: Yog Prayog Ayog
Author(s): Muktiprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 250
________________ योग-प्रयोग-अयोग/२०५ मनुष्य के शरीर में एक भी रोम ऐसा नहीं है जिसके मूल में रोग की सत्ता न हो। एक-एक रोम में पौने दो-दो रोगों का अस्तित्व शास्त्रकारों ने बतलाया है। सत्ता में रहने वाले वे रोग विषय भोग विलास और रोगोत्पादक आदि सहकारी कारणों के मिलने पर एकदम उभर आते हैं । आयु पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक होने से निरन्तर क्षीण होती रहती है। रोगों के उपद्रव और आयु की क्षीणता, इन दो कारणों से "इमं शरीरं अणिच्य"३१अर्थात् यह शरीर अनित्य, नश्वर, क्षणभंगुर और "असासए सरीरम्मि"३२अर्थात् अशाश्वत है। अतः जन्म, जरा और मृत्यु तीनों इसी नश्वर शरीर के धर्म हैं। पदार्थों की अनित्यता संसार की समस्त वस्तुएँ पौद्गलिक हैं, जड़-पुद्गल से बनी हैं, और पुद्गल में ही वह नष्ट होती हैं, क्योंकि पुद्गल का स्वभाव ही है पूरण और गलन, "पुरणाद्गलनादपुद्गलः" - पुद्गल का स्वभाव मिलना और बिखरना, बिखरना और मिलना है। अतः समस्त पदार्थ परिवर्तनशील, नाशवान और क्षण-क्षण-विध्वंसी अनित्य भावना का चिन्तन लक्ष्मी, शरीर, पदार्थ सब कुछ अनित्य है यहाँ तक कि जीवन भी अनित्य है। कई जीव गर्भावस्था में ही मर जाते हैं कई स्पष्ट बोलने की अवस्था में तथा कई बोलने की अवस्था आने के पहले ही चल बसते हैं। कोई कुमार अवस्था में, कोई युवा होकर कोई प्रौढ़ावस्था में और कोई वृद्धावस्था में मर जाते हैं, मृत्यु के लिए कोई अवस्था नहीं है३३ कोई नियम नहीं है। वह तो जैसे बाज पक्षी को दबोच लेता है वैसे ही आयु समाप्त होने पर काल जीव को दबोच लेता है ।३४ एक बार तालका फल वृक्ष से गिर गया बस उसकी कोई अस्ति नहीं वैसे ही आयु क्षीण होने पर प्रत्येक प्राणी जीवन से च्युत हो जाता हैं३५) कहा भी है - "वओ अच्चेति-जोव्वणं च३६ आयु और यौवन प्रतिक्षण व्यतीत हो रहा है। ३१. उत्तराध्ययन - १९/१३ ३२. उत्तराध्ययन - १९/१४ ३३. सूत्रकृतांग - १/७/१० ३४. सूत्रकृतांग - १२/२/१/२ ३५. सूत्रकृतांग - १/२/१/६ ३६. आचारांग - २/१/६५

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