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योग-प्रयोग- अयोग / १९९
सूत्रकृतांग सूत्र (अध्याय १५ गा.. ३) में मित्तिं भूएहिं कप्पए – अर्थात् समस्त
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प्राणियों में मैत्रीभाव रखें ।
औपपातिक सूत्र । प्रश्न २० में सुप्पडियाणंदा ।
अर्थात् अपने से अधिक गुण वालों को देखकर आनन्द में भर जावे ।
औपपातिक भगवदुपदेश के अनुसार
साणुकोस्सयाए ।
अर्थात् दुःखी जीवों पर दया करें और अविनयी लोगों के लिये समाधि पालन
करें ।
आचारांग सूत्र अध्याय ८. उ ८ गा. ५ में "मज्झत्थो निज्जरापेही माहिमपाल ।”
अर्थात् जीवन और मृत्यु की आकांक्षा से रहित माध्यस्थ साधक निर्जरा की उपेक्षा रखता हुआ समभाव में स्थित रहे तथा आंतरिक कषायों का एवं बा शारीरिक उपकरणों का त्याग कर आंतरिक शोधन करे ।
शांत सुधारस में भी चित्त को सद्धर्मध्यान में स्थिर करने के कारणभूत मैत्री, कारुण्य, प्रमोद एवं माध्यस्थ्य - ये चार भावनाएँ बताई हैं ।
आचार्य हरिभद्रकृत योगबिन्दु के अनुसार मैत्र्यादि चार भावनाओं का चिन्तन अध्यात्मयोग में किया गया है।
निष्पन्न योगियों का इन चार भावनाओं के अनुलक्ष में जो चिन्तन होता है वह विशेष स्वरूप में होता है उनके अनुसार सुख द्वारा ईर्ष्या का त्याग करें वह मैत्री है, दुःख की उपेक्षा का त्याग करें वह करुणा है, पुण्यवान प्राणी पर द्वेष न करना वरमुदिता है और अधर्मी प्राणी के प्रति राग-द्वेष का त्याग उपेक्षा है ।
भगवती आराधना १६९६/१५१६ के अनुसार अनन्तकाल से मेरी आत्मा घटीयन्त्र के समान इस चतुर्गतिमय संसार में भ्रमण कर रही हैं। इस संसार में सम्पूर्ण प्राणियों ने मेरे ऊपर अनेक बार महान् उपकार किये हैं ऐसा मन में जो विचार करना है, वह मैत्री भावना है।
सर्वार्थसिद्धि ७/११/३४९/७ के अनुसार दूसरों को दुख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है।
मैत्री भावना
चारों भावनाओं में मैत्री भावना का स्थान प्रथम है। क्योंकि अन्य तीनों भावना मैत्री भाव में समा जाती हैं। जैसे- प्रमोद अर्थात् गुणीजनों के प्रति मैत्री - बहुमान