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१९२/योग-प्रयोग-अयोग
ममत्व ही मूर्छा है, ममत्व ही प्रमाद है। ममत्व टूटते ही कोई संदेह नहीं रहता, कोई भय नहीं रहता। संदेह और भय तो अज्ञान है। मैं और पदार्थ की भिन्न अवस्था में ही यह ज्ञान विकसित हो सकता है, ज्ञाता और द्रष्टा का भाव विकसित हो सकता है। उस स्थिति में बहुत सारी विषमताएँ टूटने लगती हैं तथा विकृतियाँ भी एक-एक कर खंडित होती जाती हैं। ज्ञाता और द्रष्टा भाव स्वभाव है। जब आदमी ज्ञाता और द्रष्टा हो गया तो फिर विभाव ही समाप्त हो गया। अध्यात्म एक ऐसा योग है जहाँ साधक ज्ञाता भाव और द्रष्टा भाव में सहज रह सकता है ।
द्रष्टाभाव का मतलब है देखना । दृष्टि दो प्रकार की होती है- १. बाह्य, २. आंतरिक । बाह्य दृष्टि है देखनेवाला अपने को कुछ मानकर देख रहा है। जैसे-अपने को इन्द्रिय मानकर विषयों को देख रहा है, अपने को मन मानकर इन्द्रिय को देख रहा है, अपने को बुद्धि मानकर मन को देख रहा है, अपने को अहं मानकर मन को देख रहा
इस प्रकार बाह्य इन्द्रिय 'विषयों' का द्रष्टा है, मन 'इन्द्रियों' का द्रष्टा है और अहं" "बुद्धि" का द्रष्टा है । इन्द्रिय दृष्टि की सत्यता का प्रभाव मोह उत्पन्न करता है और मोह भोग में प्रवृत्त होता है, किन्तु बुद्धि दृष्टि की सत्यता मोह को वैराग्य में और भोग को योग में परिवतर्तित करता है। जब मोह त्याग में और भोग योग में परिवर्तित होता है तब ज्ञाताभाव और दृष्टाभाव आंतरिक रूप में बदल जाता है। अध्यात्मयोगी अपने आपको देखता है और अपने आपको जानता है। अध्यात्मयोग के भेद
अध्यात्मयोग के चार भेद हैं - नाम अध्यात्म, स्थापना अध्यात्म, द्रव्य अध्यात्म एवं भाव अध्यात्म १४ आत्मा का शुद्ध परिणाम भाव अध्यात्म है।
इन चार प्रकार के अध्यात्म में भाव अध्यात्म मोक्ष का कारण है, अतः भाव अध्यात्म की प्राप्ति के लिये मन की निर्मलता अत्यन्त आवश्यक है। जिस प्रकार सुवर्ण पर आच्छादित मल और सुपंग एक रूप प्रतीत होने पर भी मल स्वर्ण में अंतर्भूत नहीं है पर आवरणभूत है, वैसे ही मात्र अध्यात्म की स्थिति वाला शुद्ध आत्मा कर्म रूप मलद्रव्य से आच्छादित है, फिर भी अंतर्भूत न होने से वह भाव अध्यात्म की स्थिति का अधिकारी है। कर्म का अधिकार समाप्त होते ही आत्मा का जो स्वतः अधिकार होता है, उस अधिकार की जो क्रिया है, वह भाव अध्यात्म कहलाता है। वह आत्मज्ञान एक
१४. श्री अध्यात्ममत - परीक्षा गा. २