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योग-प्रयोग-अयोग/१९३
वस्तु होने से बोधरूप है, अतः उसे ज्ञान कहते हैं । रुचि रूप होने से उसे सम्यकत्व दर्शन कहते हैं और प्राणातिपातादिक आश्रव निरोध रूप होने से उसे चारित्र कहते हैं।१५ __ इस प्रकार अध्यात्मयोगी दुराग्रह का त्याग, अद्वेषभाव, तत्त्वशुश्रूषा, सन्तसमागम, सत्पुरुषों की प्रतिपति, तत्त्वश्रवण, कल्याण-भावना; मिथ्यादृष्टि का विनाश सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति, क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायों का नाश, इन्द्रियों पर संयम मनःशुद्धि, ममता का त्याग, समता का प्रादुर्भाव, चित्त की स्थिरता, आत्मस्वरूप में रमणता, ध्यान का प्रवाह, समाधि का आविर्भाव, मोहादि आवरणों का क्षय और अन्त में केवलज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति - इस प्रकार मूल से लेकर क्रमशः होने वाली आत्मोन्नति का वर्णन अध्यात्मयोग में किया जाता है। इस अध्यात्मयोग में प्रवेश पाने के लिए सर्वप्रथम आत्मा को जानना आवश्यक है। अतः जैन दर्शन के अनुसार आत्मा चेतनमय अरूप सत्ता है१६ उपयोग (चेतन की क्रिया) उसका लक्षण है। ज्ञान, दर्शन; सुख, दुःख आदि द्वारा वह व्यक्त होता है ५शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्शना से वह रहित है१९। अर्थात् आत्मा चैतन्य स्वरूप है, परिणामी स्वरूप होने से विभिन्न अवस्थाओं में परिणत है, स्वयं कर्ता और भोक्ता है। सत् और असत् प्रवृत्तियों से शुभ-अशुभ कर्मों का संचय करने वाला और उसका फल भोगनेवाला स्वेदेश - परिणाम, न अणु न विभु (सर्वव्यापक) किन्तु मध्यम परिणाम रूप है । अतः अध्यात्मयोगी ही इसे समझने में सफल है।
१५. श्री अध्यात्ममत - परीक्षा गा. ३ १६. अरूपी सत्ता - आचारांग सूत्र ६/१/३३२ १७. जीवोउवओग लक्खणो - उत्तराध्ययन २०-१० १८. माणेणे दंसणेण च सुहेण य दुहेण-य- उत. २८-१० १९. से.ण सद्दे ण रूवे, ण गंधे ण रसे ण फासे - आचारांग सूत्र -४/६/४९६