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योग-प्रयोग-अयोग/ १९१
किन्तु उससे जुड़े नहीं । वह यह भी स्पष्ट जानता है कि जब तक किनारा न मिले तब तक उसके लिए नौका की आवश्यकता है, क्योंकि नौका ही पार उतारने में समर्थ है। जैसे ही किनारा मिल गया नौका उसके लिए निरर्थक है, व्यर्थ नौका का कोई उपयोग नहीं, नौका नौका के स्थान पर उपयोगी है, नाविक नाविक के स्थान पर । नौका का उपयोग हो सकता है, उपभोग नहीं । उपभोग वहाँ होता है जहाँ शरीर और आत्मा को भिन्न नहीं माना जाता । तट आने पर भी नौका अलग नहीं रहती। उसने नौका को अपना आधार मान लिया, नौका के सामर्थ्य से ही मैं किनारा पा सका। इसे मैं क्यों छोडूं? ममत्व बुद्धि ने ऐसी भ्रान्ति पैदा कर दी जिससे नौका और नाविक भिन्न होने पर भी एक रूप अनुभूत हो रहे हैं। मिथ्यादृष्टि नौका से जुड़ जाता है। क्योंकि नौका से पार होने की और सुरक्षा होने की बुद्धि उसमें विद्यमान है किन्तु उपभोग होने से उपयोग बुद्धि उजागर नहीं होती। नौका को साधन मात्र मानने की मति अध्यात्म योगी में जन्म लेती है, जो नौका को केवल साधन मानता है और प्रयोजन सिद्ध होने पर उसे छोड़ देता है।
सभी संघर्षों का एकमात्र कारण है साधन से चिपकाव-जुड़ जाना। शरीर भी एक साधन है, सभी पदार्थ एक सामग्री हैं, जो साधन और सामग्री से जुड़ा रहता है, वह सबके साथ जुड़ा रहता है। जो साधन और सामग्री के साथ जुड़ा हुआ नहीं है वह किसी के साथ भी जुड़ा हुआ नहीं होता। अतः साधक साधन और सामग्री का उपयोग करे किन्तु उपभोग की लालसा जागृत न करे । प्रत्येक सामग्री की सुरक्षा करना साधक का कर्तव्य है किन्तु उपभोग करना नहीं । ऐसा साधक अध्यात्म योगी है। उसी साधक में द्वन्द्व या संघर्ष पैदा नहीं होता जो सामग्री का उपभोग करता है। क्योंकि वह मानकर चलता है कि शरीर और पदार्थ मात्र साधन और सामग्री है एक उपयोगिता है, चिपकाव की वस्तु नहीं है। अध्यात्म योगी स्वयं उसका अनुभव करता है। ____ मैं और पदार्थ, पदार्थ और मैं, दोनों में प्रत्यक्ष अन्तर स्पष्ट होता है किन्तु ममत्व ने ऐसा घेरा डाला है कि साधक सोचता है मेरा घर है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है, मेरी दुकान है, दुकान और मैं जितने भिन्न हैं उतने ही योगी और भोगी में अन्तर होता है। एक अपने को पदार्थों से भिन्न मानता है और दूसरा अपने को पदार्थों से अभिन्न मानता है। अभिन्न मानने वाला वस्तुनिष्ठ होने से उसके संयोग में खुश और वियोग में नाखुश है और साधन मानने वाला संयोग और वियोग उभय में मध्यस्थ रहता है। उससे साधन-सामग्री का ममत्व छूट जाता है । ममत्व ही संसार है, ममत्व ही उपभोग है,
१३. मंदा मोहेण पाउडा - आ. श्रु-१ अ-२, उ-२. सु. ७०