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योग- प्रयोग - अयोग / १८७
अध्यात्मयोग की दूसरी परिभाषा हरिभद्रसूरि ने जप के रूप में प्रस्तुत की है. अध्यात्म चिन्तन की पूर्व भूमिका जप है। जप से तात्विक चिन्तन परम और चरम अवस्था की प्राप्ति करता है ।
अभयदेवसूरि ने "अध्यात्म को ध्यानयुक्त र कहा है" इस परिभाषा से हम एक विशेष लक्ष्य की ओर पहुँचते हैं। यदि ध्यानयुक्त अध्यात्म की ओर हमारा दुर्लक्ष्य होगा, तो हम अनाध्यात्म में पहुँच जायेंगे अतः अभयदेवसूरि की यह परिभाषा लक्ष्य सूचक है 1
उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्म की परिभाषा विभिन्न स्वरूप में प्रस्तुत की
है
१. आत्मा के लिए की जाने वाली आत्मा की शुद्ध क्रिया अध्यात्म है ४ ।
२. आत्मा को ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पंचाचार में निहित होना अध्यात्म हैं" ।
३. बाह्य व्यवहार से महत्त्व प्राप्त चिन्तन को मैत्री आदि चार भावनाओं से भावित करना अध्यात्म है ।
उपाध्यायजी की नं. २ की परिभाषा शीलांकाचार्य की परिभाषा से कुछ विशेषता बताती है। शीलांकाचार्य ने धर्मध्यान की ज्ञानादि भावना को अध्यात्म बताया है किन्तु उपाध्यायजी ने इसे ज्ञानादि भावना तक ही अध्यात्म को सीमित नहीं रखा उन्होंने उन भावनाओं से भावित होकर उसे आचरण तक पहुँचाने को अध्यात्म कहा है।
नं. ३ की परिभाषा में उपाध्याय जी का मंतव्य है कि चित्त विशेषतः बाह्य व्यवहार संयुक्त होता है। अध्यात्मचित्त बाह्याभिमुख चित्त को अन्तर्मुख बनाता है और मैत्री आदि भावनाओं से भावित करता है अतः इस परिभाषा के अनुसार अध्यात्म बहिरात्मा से अंतर्रात्मा में प्रवेश कराता है।
२. जपोह्यध्यात्ममुच्यते - ( योगबिन्दु गा. ३८१ )
३. अजज्झप्पज्झणजुत्ते (अध्यात्मध्यानयुक्त ) ( प्रश्नव्याकरण सूत्र ३. सं. द्वा.)
४.
अध्यात्मसार - प्र. १ अ. २, श्लो. २
५. अध्यात्मउपनिषद् अ. १, श्लो. २ ६. अध्यात्मउपनिषद् अ. १, श्लो. ३