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१८० / योग-प्रयोग-अयोग
इस असगानुष्ठान को स्थितयोगी साध सकता है। अतः इस पद (असंगानुष्ठान, तक पहुँचने के लिए यह सप्तम प्रभादृष्टि ही योगी महात्माओं को इष्ट है।
प्रभा दृष्टि कोष्ठक नं. १९
अन्य विशिष्टता गुणस्थान
दर्शन योगांग दोषत्याग गुणप्राप्ति सूर्यप्रभा ध्यान अनुपम सम निर्मल सुख शमसार राग द्वेष तत्वप्रतिपति
त्याग
बोध
सत्प्रवृत्ति पद ७-८ सत्प्रवृत्ति का उपयोग असंगानुष्ठान
८. परादृष्टि
आठवीं परादृष्टि में योग के अंतिम अंग समाधि की संप्राप्ति होती है। धारणा से ध्यान और ध्यान से समाधि का कालक्रम योग साधना का विशेष रूप है। धारणा से प्रारम्भ होने वाली एकाग्र अवस्था ध्यानावस्था को पार करती हुई समाधि में पर्यवसान पाती है। धारणा में चित्तवृत्ति की स्थिरता एकंदेशीय अर्थात् अप्रवाह रूप होती है। ध्यान में चित्तवृत्ति का प्रवाह गतिमान होता रहता है। किन्तु गति में सातत्य नहीं रहता। अपितु अंतर्मुहूर्त में उसका विच्छेद हो जाता है। समाधि में चित्तवृति का प्रवाह विच्छिन्न रूप से होता है। यहाँ एकाग्रता का स्थापित्व होता है। क्योंकि ध्यान में बहुधा विक्षेप होता रहता है। ऐसे कारणों का यहाँ सर्वथा अभाव होता है।
इस परावृष्टि में बोध चन्द्र के उद्योत के समान शान्त एवं स्थिर होता है तथा विकल्पों का हास होता है। प्रभादृष्टि में जो प्रतिपति गुण की प्राप्ति हुई थी, उसकी इस दृष्टि में पूर्णता प्राप्त होती है। बाह्य क्रियाओं का अभाव होने से यहाँ अंतरंग प्रवृत्ति प्राप्त होती है। जैसे उपशम श्रेणी इत्यादि का आरोहण होता है।
यहाँ खेदादि आठ दूषणों में अतिदूषण जो आसंग दोष है उसका त्याग होता है। इस दृष्टिवाले वीतराग महायोगी को परद्रव्य-परभाव के परमाणु के प्रति लेशमात्र आसक्ति नहीं होती।