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योग-प्रयोग-अयोग / १७९
कि ध्यान में वह प्रवाहरूप तथा दीर्घकालीन होती है। ध्यान करने वाला योगी महात्मा को ध्याता कहा जाता है। श्रेष्ठ ध्याता वही है जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य इन चार उत्तम भावनाओं से भावित होता है। ज्ञान भावना से निश्चलता, दर्शन भावना से असंमोह, चारित्र भावना से पूर्वकर्म निर्जरा एवं वैराग्य भावना से आशंसा और भय का उच्छेद होता है। श्री नेमिचन्द्राचार्य ने बृहद द्रव्य संग्रह में मनोजय और इन्द्रियजय से युक्त जो निर्विकार बुद्धिवाला है उसे ध्याता कहा है।
ध्येय अर्थात् ध्यान करने का विषय-आलंबन । किसी भी ध्येय चिन्तन का अंतिम हेतु आत्मध्यान पर आरूढ़ होता है। अतः किसी भी ध्येय पदार्थ का चिन्तन होने से आत्मनिरीह वृत्ति को प्राप्त कर एकाग्रता को धारण करना ध्येय है। ध्येय के मुख्य प्रकार तीन हैं । जैसे
१. चेतन का अचेतन ऐसी मूर्त अमूर्त वस्तु २. पंच परमेष्ठी ३..आत्मा।
इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि ध्यान के प्रकार आत्मा को स्वरूपावलंबन में परम उपकारी होने से आत्मध्यान में प्रवृत कराता है।
आलंबन योग इस प्रकार इस प्रभादृष्टि में असंग अनुष्ठान की प्राप्ति होती है। जैसे दंड के पूर्व प्रयोग से चक्र का भ्रमण होता है। वैसे ही असंग अनुष्ठान से स्वाभाविक शिष्ट वचनानुसार अनुष्ठान होता है।
इस असंग अनुष्ठान को भिन्न-भिन्न दर्शनों ने भिन्न-भिन्न नाम से प्रसिद्ध किया है जैसे
(१) सांख्य दर्शन में प्रशमन्तवाहिता कहते हैं। प्रशान्त वाहिता अर्थात् सदृशप्रवाह रूप परिणामि१४
(२) बौद्ध दर्शन में विसभाग परिक्षय कहते हैं । (३) शैव दर्शन में शिववर्त्म - शिवमार्ग कहते हैं । (४) महाव्रत में धुवाध्य - धुवमार्ग कहते हैं१५॥
१४. द्वा. २४, द्वा. २३ १५. योगदृष्टि समुच्चय गाथा १७६