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९० / योग- प्रयोग- अयोग
संयोग बंध कहा जाता है। तत्वार्थसूत्र के शब्दों में कषाय के सम्बन्ध में जीव कर्म योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है अतः वह बंध है। जैसे दीपशिखा तैल को ग्रहण करती है वैसे ही आत्म प्रदेशों के साथ पुद्गलों का होना बन्ध होता है जैसे- दूध और पानी, लोहा और अग्नि एक दूसरे में मिश्रित हो जाते हैं । ५
योग प्रवृत्ति के स्वभावानुसार कर्म प्रकृति का समूह एकत्र होता है और कषाय की तरतमता के अनुसार कर्म का अनुभाग तथा स्थितिबंध होता है । इतना अवश्य समझना चाहिए कि जिन कारणों से आस्रव होता है उन्हीं कारणों से बंध भी होता है। अन्तर इतना ही है कि आसव द्वारा कर्म पुद्गलों की वर्गणा कर्मरूप में ग्रहीत होती है और बन्ध द्वारा वे पुद्गल आत्म प्रदेशों से आबद्ध होते हैं ।
बन्ध हेतु का स्वरूप
राजवर्तिक में योग और कषाय को बन्ध हेतु का कारण माना है।
- आचार्य कुन्द । कुन्द ने बन्ध हेतु के विषय में एक स्थान पर मिथ्यात्व अविरति, कषाय और योग को बन्ध हेतु कहा है।
- द्वितीय स्थान पर राग, द्वेष और मोह को बन्ध हेतु कहा है।
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- तत्त्वार्थ सूत्र में मिथ्यात्व आदि पाँच बन्ध हेतु माने हैं ।
तत्त्वानुशासन में रामसेनाचार्य ने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन ती को बन्ध का हेतु माना है। आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने कषाय, विषय, योग प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्त रौद्र ध्यान इन अशुभ कर्मों को बन्ध हेतु माना है ।"
इस प्रकार बन्ध हेतुओं की संख्या के विषय में तीन परम्पराएँ देखने में आती हैं। प्रथम परम्परा में कषाय और योग दो बन्ध हेतु हैं । द्वितीय परम्परा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार बन्ध हेतुओं की हैं। तीसरी परम्परा उपर्युक्त चार और प्रमाद मिलाकर पाँच प्रकार की है।
मन, वचन और कायरूप योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है और कषाय से स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध होता है। कर्म पुद्गल जब केवल योगनिमित्त से आत्मा में आते हैं - तब से वहाँ स्थिति और अनुभाग रूप से परिणत होकर वहाँ रहते हैं - तथा
५. राजवर्तिक - १, ४, १७, २६, २९
६. तत्वानुशासन गा. ८ पृ. १५
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योगशास्त्र - ४१७८ पृ. १३३