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योग-प्रयोग-अयोग/ ९७
शुभयोग का चरम ध्येय मुक्ति की प्राप्ति है। कार्य सिद्धि शुभ योग के आलम्बन से ही होती है अतः साधक की कार्यसिद्धि की सम्पूर्ण प्रवृत्ति समाधि कही जा सकती है। इस प्रकार सामान्यतः समाधि की अवस्था चतुर्थ गुणस्थान से चतुर्दश गुणस्थान तक कही जा सकती है। ___आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार समाधि का स्वरूप द्रव्य और भाव उभय स्वरूप में है। “सामाधानं समाधि" | जिस वस्तु से मन, वचन और काया को समाधान मिलता हो वह समाधि है। वस्तुतः किसी भी पदार्थको प्राप्त कर जीवन में जोशांति
और आनन्द प्राप्त होता है, उसे समाधि कहा जाता है। ऐसी समाधि को द्रव्य समाधि कहते हैं ।
भाव समाधि योग दृष्टियों में आठवीं "परादृष्टि" में प्राप्त होती हैं। इस दृष्टि तक पहुँचा हुआ साधक समाधिनिष्ठ हो जाता है। यह ऐसी अवस्था है जहाँ साधक असंग अर्थात् शरीर से भी पर हो जाता है। परादृष्टि समाधि की चरमावस्था है उसे आत्म-समाधि कहते हैं । जो सद्ध्यान रूप होने से निर्विकल्प होती है, अतः यहाँ पर ध्याता-ध्यान का भेद समाप्त हो जाता है और अभेद स्वरूप होकर वह उस त्रिपुटी में लय को प्राप्त करता है ।
अभयदेव सूरि ने समाधि को तीन स्वरूप में प्रयुक्त किया है - १. सम्यक मोक्ष मार्ग की स्थिरता ११ २. चित्त की प्रशमवाहिता १२ ३. तथा श्रुत और चारित्र की विशुद्धता
इन परिभाषा में स्थिरता, प्रशमवाहिता और विशुद्धि के स्वरूप से समाधि की स्वाभाविकता और सरलता का समाधान मिलता है।
आचार्य मलयगिरि ने चित्त की स्वस्थता को समाधि कहा है। चित्त की स्वस्थता होने पर ही मन एकाग्र होता है और काया स्थिर होती है।
७. ललित विस्तरा-पृ. ३५५ ८. आवश्यक सूत्र-अ. २ ९. योगदृष्टि समुच्चय श्लो. १७६ १०. श्री देवचन्द्रजी चौविशी ११. सम्यग्मोक्षमार्गावस्थाने-समवायांग सूत्र-सम. २० की टीका १२. प्रशमवाहितायामज्ञानादौ च-स्थानांग सूत्र-स्था. ४, उ. १ की टीका १३. समाधिः श्रुतं चारित्रं च-स्थानांग सूत्र स्था. ४, उ. १ की टीका १४. आवश्यक सूत्र म्यगिरि टीका अ. २