________________
१७० / योग- प्रयोग- अयोग
दर्शन योगांग दोष
त्याग
तृण यम
अग्नि वत्मंद
गुण
प्राप्ति
• अखेद | अद्वेष
操
मित्रादृष्टि का कोष्ठक
कोष्ठक नं. ११
योग बीज
ग्रहण
१. जिन भक्ति
२. सद्गुरुसेवा
३. भव उद्वेग
४. द्रव्यअभिग्रह
पालन
५. आगमानुसार
लेखन
कथा
श्रवणश्रद्धा एवं
शुद्ध उपादेय
भाव
प्राप्ति
क्रम
भावमल
आप्लता
गुर्वा
को
प्रमाणादि
अवंचक
प्राप्ति
समय गुणस्थान
अंतिम प्रथम
पुद्गल
परावर्त मिथ्यात्व
में
गुणस्थान
अंतिम
यथाप्र
वृत्ति
करण
में
शुभनिमित्त ग्रंथिभेद
योगबीज निकट
आदि
हो
तक
२. तारा दृष्टि
मित्रा दृष्टि की अपेक्षा राग-द्वेष का प्रभाव अपेक्षाकृत कुछ हल्का हो गया है, ऐसे साधक की तारा दृष्टि कहलाती है। इसकी उपमा उपलों की चिंगारी से दी गई है। यहाँ साधक अहिंसादि यमों की अपेक्षा अधिक उन्नतकारी नियमों का पालन करता है तथा ध्यान द्वारा मन केन्द्रित करता है, जिज्ञासा और उचित आचरण से वैराग्य और कर्त्तव्य पालन में दृढ़ रहता है। जिससे गुणवानों के प्रति जिज्ञासा प्राप्त होती है।
इस दृष्टि वालों की प्रवृत्ति मन-वचन-काया के विशुद्ध योग की ओर विशेष होती है, वह निरन्तर चिन्तन करता रहता है कि मैं बन्धन से मुक्त कब हो जाऊँ ? इस संसार में महात्माओं की प्रवृत्ति अनेक प्रकार की होती है यह समस्त प्रकृति को मैं कैसे. जान सकूँ ; इत्यादि चिन्तन, इस तारादृष्टि वालों का होता है ।