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१. दष्टियोग से अयोग दर्शन
योग दृष्टियों से अयोग तक पहुँचने के लिए आचार्य हरिभद्रसूरि ने जो अपना मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है वह जैन दर्शन के लिए एक नयी दिशा है। योगदृष्टिओं को प्राप्त करने के साथ-साथ आचार्यश्री ने पिछली चार दृष्टियों के समय पाये जाने वाले विशेष आध्यात्मिक विकास को इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योग भूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योग भूमिकाओं का रोचक वर्णन किया है।
समर्थ साधकों के लिए ही साधना मार्ग में प्रवृष्ट होने की इच्छा या रुचि जागृत होती है। रूचि एक ऐसा रासायनिक तत्त्व है कि प्राप्त होते ही समाधान की खोज में साधक निकल पड़ता है वह है शास्त्रयोग जो समाधान को जन्म देता है और उसका, पूर्ण विकास है सामर्थ्य योग जिसके द्वारा साधक अपनी पूर्णता प्राप्त कर पाता है। इच्छायोग __ इच्छायोग अर्थात् पूर्ण इच्छा से भाव नमस्कार' प्रतिक्रमणसूत्र में भी "इच्छामिणमंते", "इच्छामिखमासमणो, "इच्छाकारेण संदिसह भगवन्" इत्यादि इच्छा प्रदर्शक पद से प्रारम्भ होता है। इसी प्रकार इच्छायोग मंगलाचरण है साथ योग का प्रथम सोपान है और साधना का प्रवेश द्वार है।
इच्छायोग में धर्म प्रवृत्ति की इच्छा का प्राधान्य होता है और क्रिया शुद्ध गौण मानी जाती है। क्रिया तीन प्रकार की होती है
१. विषय शुद्ध क्रिया-क्रिया का लक्ष्य तो शुद्ध है किन्तु कार्य अशुद्ध है। २. स्वरूप शुद्ध क्रिया-लौकिक दृष्टि से शुद्ध है।
३. अनुबन्ध क्रिया-इस क्रिया में चित्त की प्रशान्तवाहिता ध्येयं निष्ठा और तत्वसंविज्ञा का प्राधान्य होता है।
१. प्रतिक्रमण सूत्र