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योग-प्रयोग-अयोग/१६३
सामर्थ्ययोग का अर्थ है-आत्मा में इतनी शक्ति (सामर्थ्य) प्रकट कर, जिससे अप्रमत्त योग की प्राप्ति होवे । आत्मा में असंख्यकाल से निहित विषय कषायादि दुष्ट भावों का नाश होवे। क्योंकि सामर्थ्ययोग उच्चगुणस्थानों में ही प्राप्त होता है। इसके मुख्यतया दो भेद हैं-(१) धर्मसंन्यास सामर्थ्ययोग और (२) योगसंन्यास सामर्थ्ययोग । ७वाँ गुणस्थान छोड़ने से ८वाँ गुणस्थान प्राप्त होने पर धर्म संन्यास - सामर्थ्ययोग आता है, जिसमें सातवें गुणस्थान तक करने के बाह्य धर्मानुष्ठान छोड़ देने होते हैं, जबकि योगसंन्यास सामर्थ्य योग में १३वें गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त काल बाकी रहता है, तब मन, वचन, काया के निरोध करने की क्रिया शुरू होती है। वहाँ से ठेठ शैलेशीकरण के अन्तिम समय तक की अवस्था होती है। आयोज्यकरण
आयोज्यकरण – योगसंन्यास योग की पूर्वावस्था है। अचिन्त्य वीर्य शक्ति से और असाधारण सामर्थ्य से केवली भगवन्त समुद्घात करते हैं। केवली समुद्घात से पूर्व आयोज्यकरण होता है। .. केवली समुद्घात
जिस केवली भगवन्त की वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति आयुष्य कर्म से अधिक हो उन केवली भगवन्त को कर्मों के समीकरण के लिए समुद्घात करना पड़ता है। अथवा वेदना आदि निमित्तों से कुछ आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात है। शैलेशीकरण
आयोज्यकरण एवं समुद्घात का परिणाम योगसंन्यास है। इसमें मन-वचनकाया का सर्वथा निरोध होता है। यह योगसंन्यास मोक्ष प्राप्ति के उतने निकट काल में उत्पन्न होता है कि जितना समय पंच-हस्वाक्षर के उच्चारण में लगते हैं । योगसंन्यास में आत्मा की मेरू पर्वत की भाँति, निष्प्रकंप अवस्था हो जाती है। शैलेशी अवस्था में योग का निरोध होने से आत्मप्रदेश स्थिर अकंपित हो जाते हैं और कर्मबन्धन से मुक्त होकर मोक्ष अवस्था प्राप्त होती है। इस प्रकार आयोज्यकरण से शैलेशीकरण और शैलेशीकरण से योगसंन्यास की संप्राप्ति होती है। और योगसंन्यास से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
४. योगशास्त्र अ. ११, गा. ५० ५. राजवार्तिक-१/२०/१२/७७/१२, गोम्मटसार-५४३/९३९/३ ६. ललित विस्तरा पं. टी. पृ. ५५