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२. दृष्टिओं के विकास क्रम में उत्तरोत्तर संवर्धन
१. मित्रा दृष्टि
मित्रा, यह प्रथम दृष्टि है। राग-द्वेष की मात्रा अल्प होने के कारण इस अवस्था में जो बोध होता है, उसकी उपमा अग्निकण से दी गई है। जिसका प्रकाश क्षणिक होता है। इस स्थितिवाला मनुष्य अच्छी तरह नहीं समझ सकता कि क्या इष्ट और क्या अनिष्ट है। फिर भी वह आत्मशिक्षा के लिए अहिंसा करता है। शुभ कार्यों में रुचि उत्पन्न होने के कारण उनमें अखेद और अद्वेष गुण जागृत होने लगते हैं। समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, अद्वेष भाव, निर्विकारभाव रखने लगता है। उसमें प्रगति के बीज, योग बीज आरोपण होने लगते हैं, राग-द्वेषादि घटने लगते हैं और परिणामों में भी निर्मलता आने लगती है । जिससे उसके परिणाम “यथा प्रवृत्तिकरण" द्वारा अपूर्वकरण कर ग्रंथि भेद के निकट पहुंच रहे हैं। ___ दर्शन की मंदता, योग का प्रथम अंग यम,खेद जैसे दोषों का त्याग अखेद और अद्वेष जैसे गुणों की सहज प्राप्ति से तप, त्याग, वैराग्य भक्ति, भाव वंदन आदि योग बीजों का संयोग प्राप्त होता है। योगबीज का प्राप्ति काल
योगबीज साधक को तभी प्राप्त होते हैं जब कर्मरूप भावमल क्षीण होता है तथा चरम पुद्गल परावर्तन जितना काल मोक्षमार्ग के लिए शेष रहता है। यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा भावमल का क्षय होता है।
योग बीज के अनुसंधान से योगावंचक, क्रियावचक और फलावंचक समाधियोग फलित होता है। जैसे-लक्ष्यभेदी बाण लक्ष्य को भेदता है और कार्य की सिद्धि करता है वैसे ही साधक के अपने शुद्ध आत्मसिद्ध रूप लक्ष्य को अनुलक्षित योग, क्रिया एवं फल अवंचक होता है, जिससे साधक अवश्य अपने स्वसाध्य स्वरूप प्रवृत्ति को अविसंवादरूप से सिद्ध करता है। -
१. योगदृष्टि समुच्चय-श्लो. ३२ -