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११४ / योग-प्रयोग-अयोग
ध्यान के लिए वचन और काय के साथ मन को एकाग्र करना आवश्यक है। अतः ध्यान, आत्म-चिन्तन में स्थिर किया जाए। वस्तुतः ध्यान मन को एक स्थान पर एकाग्र करने-स्थित रखने की साधना है। इसके अतिरिक्त धारणा के निमित्त निश्चित किये गये देशनिर्णय के अन्तर्गत आधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपुरकचक्र, अनाहतचक्र, विशुद्धि- चक्र, आज्ञाचक्र और अजरामरचक्र, इन सात चक्रों का भी योगग्रन्थों में उल्लेख देखने में आता है। यह अनुभव सिद्ध बात है कि चित्तनिरोध के लिए मन की एकाग्रता अपेक्षित है और एकाग्रता के लिए उसका किसी एकदेश में स्थापना करना आवश्यक है। इसलिये आगमों में किसी एक पुद्गलविशेष पर, स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ पर दृष्टि को स्थिर करके मन की एकाग्रता (सम्पादनार्थ धारणा) का समर्थन किया है। ___ इन्द्रियों को और मन को विषयों से खींच लेना भी धारणा होती है। विषयों से विमुख बने हुए मन को नासिकाग्र आदि स्थानों पर स्थापित कर लिया जाता है। इस प्रक्रिया से कुछ ऐसा साक्षात्कार होने लगता है, जो पहले कभी अनुभव में न आया हो। कभी-कभी दिव्य-गंध, दिव्य-रूप, दिव्य-रस, दिव्य-स्पर्श और दिव्य-नाद की अनुभूति होती है। किन्तु उन्हें भी इन्द्रियों के सूक्ष्म विषय मानकर मन से बाहर धकेल देना चाहिए। ऐसा करने पर मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव होगा। इस प्रकार बाह्य और आन्तरिक विषयों से विरक्त मन में ही धारणा की योग्यता आती है। धारणा की योग्यता प्राप्त हो जाने पर ही यथार्थ ध्यान हो सकता है।
यहाँ पर इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि-प्रथम धारणा का विषय स्थूलं होता है और बाद में वह सूक्ष्म और सूक्ष्मतर बनता चला जाता है। तात्पर्य यह है कि साधक को प्रथम तो बाह्यविषय में किसी स्थूल मूर्त पदार्थ को ध्येय बनाकर उसमें दृष्टि को स्थिर करना होता है। उसमें दृष्टि के परिपक्व हो जाने के बाद फिर सूक्ष्म पदार्थ को ध्येय बनाकर धारणा करनी होती है। इसी प्रकार प्रगति करते-करते वह अन्त में अपने चेतन स्वरूप को ही ध्येय बनाकर उसके साक्षात्कार में सफल हो जाता है। इतना ध्यान रहे कि योग के प्रथम पाँचों अंग मंद अधिकारी के लिए हैं, अर्थात योग की प्रक्रिया को न जानने वाले के लिए विशेष उपयोगी है और पीछे के तीन अंग-धारणा, ध्यान और समाधि मध्यम और उत्तम अधिकारी के लिए उपयोगी हैं।
ध्यान-देखिए पृ. नं. १६६
१७. भगवती सूत्र श. ३ उ. २