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योग- प्रयोग-अयोग / १२१
आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं, ज्ञानावरण उन सबको आवृत्त किए हुए है। ये आत्मप्रदेश सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हैं और प्रत्येक आत्मप्रदेश में ज्ञान का आलोक छाया हुआ है। मानव अपनी वृत्तियों का निरोध करके जैसे-जैसे आवरण को हटाता है वैसे-वैसे ज्ञानशक्ति प्रस्फुटित होने लगती है। आवरण की क्षमता विलीन होते ही स्थूल शरीर में ज्ञान की अभिव्यक्ति के केन्द्र निर्मित हो जाते हैं। ज्ञान के भेद
सामान्य तौर पर ज्ञान के पाँच भेद माने जाते हैं । मतिज्ञान, श्रृतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । मात्र मतिज्ञान ही इतना व्यापक है कि सारा संसार क्रम इसी की कड़ी में जुड़ा हुआ है। हम किसी पदार्थ को जानते हैं, पदार्थ का जानना-मानना ये संस्कार है, ये संस्कार मतिज्ञान का प्रथम चरण "अवग्रह" है । पदार्थ का सामान्य बोध पूर्वकृत संस्कार-वासना से उद्भूत होता है। पश्चात् तर्क पैदा होता है क्या है प्रश्न पैदा होता है। निर्णय के लिए संशोधन होता है, वहाँ मतिज्ञान का द्वितीय चरण "ईहा" का बोध होता है। तर्क-वितर्क की उलझनें सुलझ जाती हैं, निर्णय विवाद को समाप्त करता है, तब किसी एक निष्कर्ष पर सत्ता प्राप्त होती है, वह है मतिज्ञान का तृतीय चरण "अवाय" । निश्चयात्मक ज्ञान, प्राप्त होने पर कोई शंका तर्क विमर्शन शेष नहीं रहता तब मतिज्ञान का चतुर्थ चरण 'धारणा" बनती है। यह धारणा ही स्मृति बन जाती है। वही संस्कार के रूप में जम जाती है। इस प्रकार संस्कार का क्रम जन्म-जन्मांतर में चलता रहता है। इसी संस्कार से स्मृति उभरती है। कड़ी से कड़ी जुड़ती है और इसी से राग और द्वेष का जन्म होता है । "रागो य दोसो वि य कम्मबीयं ५ राग और द्वेष ही ज्ञान का आवरण रूप हेतु है।
ज्ञानयोग प्रत्यक्ष ज्ञान है। जब तक आवरण होता है वह तब तक परोक्ष ज्ञान ही रहता है, इन्द्रिय जन्य ज्ञान ही रहता है, स्मृति जन्य ज्ञान ही रहता है । वासना और संस्कार जन्य ज्ञान अज्ञान होता है। जैसे ही परिस्थिति पदार्थ, परिणाम उभरकर हमारे सामने आता है, हमारी स्मृति उजागर हो उठती है। हमारा स्मृतिज्ञान जवाब देता है यह वही है। स्मृति, शब्द के रूप में हो दृश्य के रूप में हो, ज्ञात हो या अज्ञात रूप में हो, सचित्र हमारे सामने अंकित होती है। इस परिस्थिति में आत्मा स्मृति से सम्बन्धित होकर जुड़ जाती है। अतः राग-जन्य या द्वेष-जन्य ज्ञान आवृत्त होता है। यह आवर्त का क्रम चलता रहता है यही संसार है। ज्ञान योगी इस आवर्त से पर होता है। ज्ञान योग में इस आवर्त से पर होने का सामर्थ्य है।
५. उत्तराध्ययन सूत्र ३र७ ६. आचारांग अ. २उ.१सू.६३