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१२२/ योग-प्रयोग-अयोग
ज्ञानयोगी दूसरों के मन के विचार जान लेता है। आगम में मनयोगी के मानस का चिन्तन विशद रूप में मिलता है, आगम को श्रुतज्ञान कहा जाता है। सम्पूर्ण रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञानी जानता है और देखता भी है। मनःपर्यवज्ञानी मनोगत भावों को जानता और देखता है। नंदिसूत्र में कहा है कि मनःपर्यवज्ञानी अतीत और अनागत काल को पल्योपम के असंख्यातवे भाग को वर्तमान की तरह जानता है और देखता है। ज्ञानयोगी अपने ज्ञान से मनोगत भाव को जानते और देखते हैं। वैसे ही वाणीगत भावों का व्यापक रूप यथार्थ स्वरूप को भी जानते और देखते हैं । इस प्रकार कायिक चेष्टा से सर्वभावों को उजागर कर सकते हैं ।
हम पुस्तकीय ज्ञान को ज्ञान मान बैठे हैं। पढ़कर, रटकर, जो स्मृति के आधार पर कार्य को क्रियान्वित किया जाता है यह स्मृति मतिज्ञान है।
आधुनिक विज्ञान केवल मक्खी के ही इतने प्रकार बताते हैं कि उनकी प्रक्रिया समूह व्यवस्था आदि का अध्ययन या ज्ञान प्राप्त करें तो सारी जिन्दगी खत्म हो जाय तो भी पूरा नहीं होगा। केवल पत्ता, भाजी को ही देखो कितने प्रकार हैं उनके वनस्पति विज्ञान के अध्ययन में ही जीवन समाप्त हो जायेगा और वनस्पति का ज्ञान अधूरा रह जायेगा। ___ एक डॉक्टर के लिए शारीरिक चिकित्सा, रोग का निदान, रोगों का इलाज दवाओं का ज्ञान आवश्यक है। एक वकील के लिए कानून का, साक्षियों का, मानसिक स्थिति का ऊटपटांग (Cross Examination) वाणी एवं वैभव का ज्ञान आवश्यक है। व्यापारी के लिए ग्राहक का, माल आदि का, बाजार की मंदी-तेजी का ज्ञान उपयोगी माना जाता है। उसी प्रकार ज्ञान योग वही माना जाता है जो आत्म-सम्बन्धी हो क्योंकि बाह्य ज्ञान बौधिक उपज है ज्ञानयोग आत्मिक उपज है।
तेजाब मिश्रित पानी के साथ विद्युत का प्रयोग करके एक रूप बने हुए हाइड्रोजन और ऑक्सीजन वायु को वैज्ञानिक अलग कर सकता है उसी प्रकार जड़ और चैतन्य जो एक रूप प्रतीत होते हैं उनका भेद ज्ञान स्वाध्याय और ध्यान के सहयोग से होता है।
ज्ञान प्राप्ति के लिए बुद्धि की निर्मलता-मन की विशुद्धता, अन्तःकरण की
७. नंदिसूत्र ३७ ८. तत्त्वानुशासन अध्याय ३. श्लोक ७ (८१)