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१२६ / योग-प्रयोग-अयोग
आचार्य कुन्दकुन्द ने वीतरागियों में अनुराग करने वालों को सच्चा योगी कहा है। उनके अनुसार आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के प्रति भक्ति करने वाला सम्यकदृष्टि कहा जाता है। भक्ति और ज्ञान
सेवा, श्रद्धा और अनुराग की तरह ज्ञान और भक्ति का भी अविनाभावी सम्बन्ध है। ज्ञान के बिना भक्ति अन्धभक्ति है, क्योंकि ज्ञान और भक्ति दोनों का लक्ष्य एक है-मोक्ष प्राप्त करना । आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार ज्ञान आत्मा में विद्यमान है, किन्तु गुरु की भक्ति करने वाला भव्य पुरुष ही उसको प्राप्त कर पाता है। उन्होंने भाव पाहुड में भगवान जिनेन्द्र से बोधि अर्थात् ज्ञान देने की प्रार्थना की है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार भक्ति वही कार्य करती है जो कार्य पारस करता है। जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्णरूप हो जाता है उसी प्रकार भगवान की भक्ति से सामान्य ज्ञानी कैवल्य ज्ञानी हो जाता है ।१२ भक्ति योग का महत्त्व
जैन योग में भक्ति योग का महत्त्व उच्च कोटि का है। अरिहंतः सिद्ध परमात्मा की भक्ति ही साधक को योगी-महात्मा बनाने में समर्थ रहती है। हरिभद्रसूरि ने योग बिन्दु में "योगीवृन्दारकवन्दनीय?"१२कहकर भगवन्त की भक्ति की है। योगमार्ग की प्राथमिक भूमिका भक्ति ही है ऐसा प्रमाण उन्होंने योगदृष्टि समुच्चय नामक अपने ग्रन्थ में किया है। जैसे "जिनेषकुशलंचितं"१४अर्थात् जिनेश्वर भगवन्तों के प्रति भक्तियुक्त चित्त को योगबीज कहा जाता है। हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में "अर्हते योगिनाथाय"१५अर्थात् योगियों के नाथ कहकर भगवन्त की स्तुति की है।
भक्तियोग में अनुरक्त बने हुए मानतुंगाचार्य का परमात्मा के प्रति जो सद्भाव है वह भक्तामर स्तोत्र में मननीय है। जैसे "भक्त्या मया रुचिर वर्ण विचित्रपुष्पाम्य हाँ आचार्य स्वयं कहते हैं कि प्रभु तेरा गुणगान करने में मैं असमर्थ हूँ फिर भी जो कुछ भी
९. अष्टपाहुड में मोक्षपाहुड गा. ५२ १०. बोधपाहुड गा.२२ ११. भावपाहुड गा. १५२ १२. स्तुतिवींद्या श्लो. ६, पृ. ७० १३. योगबिन्दु गा. १. १४. योगदृष्टि समुच्चय गा. २३ १५. योगशास्त्र गा. १ १६. भक्तामर स्तोत्र श्लो. ६