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१४२ / योग-प्रयोग-अयोग
संवर की परिभाषा ____ कुंदकुंदाचार्य के अनुसार संवर की व्याख्या इस प्रकार मिलती है कि-भेद विज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है और शुद्धात्मा की उपलब्धि से राग-द्वेष और मोह का अभाव होता है, ऐसा लक्षण जिसका है, उसे संवर कहते हैं । २ ___ द्रव्यसंग्रह सटीक के अनुसार कर्मों के आस्रव को रोकने में समर्थ स्वानुभव में परिणत जीव के जो शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने का निरोध है, वह संवर है । ३ ___ इस प्रकार आत्मा का शुद्ध पर्याय होने पर आस्रव का निरोध होता है तथा आत्मविजय की प्राप्ति से संवर तत्व उत्पन्न होता है। यह संवर रूप ज्योति अर्थात् पररूप से भिन्न स्व सम्यक् स्वरूप में निश्चल रूप से प्रकाशमान, चिन्मय, उज्ज्वल और निज रस से परिपूर्ण हो जाती है तब उसे संवर कहते हैं ।
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में बारह अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख मिलता है, उनमें संवर को अनुप्रेक्षा भी कहा है, वहाँ पंडित उग्रसेन कृत टीका पृष्ठ २१८ में संवर का अर्थ इस प्रकार प्राप्त होता है। जैसे
जिन पुण्य पाप नहीं कीना, आतम अनुभव चितदीना,
तीन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ अर्थात् जो साधक पुण्य-पाप से पर होकर स्वानुभव में स्थित होता है, वह साधक आने वाले कर्मों को रोकता हैं और संवर की प्राप्ति करवाता है। द्रव्य और भाव संवर के आधार पर जयसेनाचार्य ने भी अपना मंतव्य प्रस्तुत किया है
अत्र शुभाशुभ संवर समर्थः
शुद्धोपयोगो भाव संवरः, भाव संवराधारेण नवतर कर्म निरोधो द्रव्य संवर इति तात्पर्यार्थः६ |
यहाँ शुभाशुभ भाव को रोकने में समर्थ जो शुद्धोपयोग है वह भाव संवर है, भाव संवर के आधार पर नवीन कर्मों का निरोध होना द्रव्य संवर है।
२. समयसार/आ./१८३/क. १२६ ३. द्रव्यसंग्रह/टीका/२८/८५/१२ ४. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गा. २०५ ५. पंचास्तिकाय गा. १४२ की टीका ६. पंचास्तिकाय गा. १४४ की टीका