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योग-प्रयोग-अयोग/१५१
उठते हैं "जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, वैसा चलते रहने से ही धर्म टिक सकेगा। बहुत विधि (शास्त्रअनुकूलता) का ध्यान रखने में शुद्ध क्रिया तो दुर्लभ ही है, अशुद्ध क्रिया भी जो चल रही है वह छूट जायेगी और अनादिकालीन अक्रियाशीलता (प्रमावृत्ति) स्वयं लोगों पर आक्रमण करेगी, जिससे धर्म का नाश होगा । "इसके सिवाय वे अपने अविधि मार्ग के उपदेश का बचाव यह कहकर भी करते हैं कि "जैसे धर्मक्रिया नहीं करने वाले के लिए हम उपदेशक दोषभागी नहीं होते। क्योंकि हम तो क्रियामात्र का उपदेश देते हैं, जिससे कम से कम व्यावहारिक धर्म तो चालू रहता है
और इस तरह हमारे उपदेश से धर्म का नाश होने के बदले धर्म की रक्षा ही हो जाती
ऐसा निरर्थक बचाव करने वाले उन्मार्गगामी उपदेशक गुरुओं से ग्रन्थकार कहते हैं कि एक व्यक्ति की मृत्यु स्वयं हुई हो और दूसरे व्यक्ति की मृत्यु किसी अन्य के द्वारा हुई हो इन दोनों घटनाओं में बड़ा अन्तर है। पहली घटना का कारण मरने वाले व्यक्ति का कर्म मात्र है, इससे उसकी मृत्यु के लिए दूसरा कोई दोषी नहीं है। परन्तु दूसरी घटना में मरने वाले व्यक्ति के कर्म के उपरान्त मारने वाले का दुष्ट आशय भी निमित्त है, इससे उस घटना का दोषी मारने वाला भी है। इसी तरह जो लोग स्वयं अविधि से धर्मक्रिया कर रहे हैं उनका दोष धर्मोपदेशकर्ता पर नहीं है, पर ज़ो लोग अविधिमय धर्मक्रिया का उपदेश सुनकर उन्मार्ग पर चलते हैं उनकी जवाबदारो उपदेशक पर अवश्य है। धर्म के जिज्ञासु लोगों को अपनी क्षुद्रस्वार्थवृत्ति के लिए उन्मार्ग का उपदेश करना वैसा ही विश्वासघात है जैसा शरण में आये हुए का सिर काटना । जैसा, चल रहा है ऐसा चलने दो यह दलील भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी अपेक्षा रखने से शुद्ध धर्मक्रिया का लोप हो जाता है। ____ विधि-मार्ग के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहने से कभी किसी एक व्यक्ति को भी शुद्ध धर्म प्राप्त हो जाय तो उसको चौदह लोक में अमारीपटह बजवाने की सी धर्मोन्नति हुई समझना चाहिए अर्थात् विधिपूर्वक धर्मक्रिया करने वाला एक व्यक्ति भी अविधिपूर्वक धर्मक्रिया करने वाले हजारों लोगों से अच्छा है।
अनार्यों से आर्य थोड़े हैं, आर्यों में भी जैनों की संख्या कम है। जैनों में भी शुद्ध-श्रद्धा वाले कम हैं और उनमें भी शुद्ध चारित्रवाले कम हैं। और कोई शुद्ध चारित्र वाले में भी समभावी अत्यन्त अल्प होते हैं +
क्रिया बिल्कुल न करने की अपेक्षा कुछ न कुछ क्रिया करने को ही शास्त्र में अच्छा कहा गया है, इसका मतलब यह नहीं कि अविधि मार्ग में ही प्रवृत्ति करने लगना। अगर असावधानीवश कुछ भूल हो जाये तो उस भूल से डरकर विधि मार्ग को