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योग-प्रयोग-अयोग/ १५५
जैन धर्मानुसार द्रव्य और भाव, उभय चारित्र सम्पन्नमुनि, त्यागी, वैरागी, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा गुरुदेव आदि वंदनीय हैं {८
४. प्रतिक्रमण योग-"प्रतीपंक्रमण प्रतिक्रमण", अयमर्थः - शुभ योगेभ्यो ऽशुभ योगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमाणात्प्रतीपः क्रमणम्। हेमचन्द्राचार्य कृत योगशास्त्र के तृतीय प्रकाश की सोपज्ञवृत्ति में एक व्युत्पत्ति है।
शुभ योग से अशुभ योग में पहुंचने पर पुनः शुभ योग प्राप्त करना प्रतिक्रमण कहा जाता है । १०
द्वितीय व्याख्या में आचार्यश्री ने प्रतिक्रमण का भाव इस प्रकार बताया है कि-रागद्वेषादि औदयिक भाव संसार का मार्ग है और समता, क्षमा, दया, नम्रता आदि क्षायोपशमिक भाव मोक्षमार्ग है । क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में परिणत साधक जब पुनः औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौटता है तो वह भी प्रतिफल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहा जाता है।
तीसरी व्याख्या में भी अशुभ योग से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर प्रत्येक शुभ योग में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण के प्रतिवरण, परिहरण, करण, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा और शोधित इत्यादि समानार्थक शब्द हैं 1११इसी आवश्यक नियुक्ति में इन शब्दों के भावों को आत्मसात करने हेतु समझाया गया है ।१२
५. कायोत्सर्ग योग-प्रतिक्रमण आवश्यक के पश्चात् कायोत्सर्गका स्थान है। कायोत्सर्ग शब्द दो शब्दों के योग से बना है-इसमें काय और उत्सर्ग ये दो शब्द हैं।
८. आवश्यक नियुक्ति-गा. ११९५ ९. योगशास्त्र तृतीय प्रकाश वृत्ति देखना । १०. आवश्यक निर्यक्ति-गा. ५५३ ११. आवश्यक सूत्र-पृ. ५५३ १२. आवश्यक नियुक्ति-गा. १२४२ १३. इसमें साधक कुछ समय के लिए शरीर को स्थिर कर, जिन मुद्रा धारण करके खड़ा हो जाता है, और
मन में संकल्प करता है कि-तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित करणेणं, विसोही करणेणं विसल्ली करणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउसग्गं । अर्थात् संयम जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिए, लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त करने के लिए, आत्मा को विशुद्ध करने के लिए, शल्य रहित करने के लिए, पाप कर्मों का निर्धात उन्हें नष्ट करने के लिए, मैं कायोत्सर्ग करता हूँ इत्यादि। ___कायोत्सर्ग द्वारा साधक अपनी भूलों के लिए प्रायश्चित्त करता है, मन में पश्चाताप करता है और शरीर की ममता को त्याग कर उन दोषों को दूर करने के लिए कृत संकल्प बनता है।