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१५४ / योग-प्रयोग-अयोग
१. सामायिक-समभाव, समता । २. चतुर्विंशतिस्तव-वीतराग देव की स्तुति । ३. वन्दन-गुरुदेवों को वंदन । ४. प्रतिक्रमण-संयम में लगे हुए दोषों की आलोचना । ५. कायोत्सर्ग-शारीरिक ममत्व का त्याग। ६. प्रत्याख्यान-आहारादि की आसक्ति का त्याग ।
१. सामायिक योग-सम् उपसर्गपूर्वक गति अर्थवाले इण् धातु से समय शब्द होता है। सम का अर्थ एक ही भाव और यिक का अर्थ गमन है। एक ही भाव रूप बाह्य परिणति से विमुख होकर आत्मा के समीप आना समय कहा जाता है और समय का भाव सामायिकर । सामायिक करने वाला साधक-राग और द्वेष के वश न होकर समभाव-माध्यस्थ भाव में स्थिर रहता है, अर्थात् सबके साथ आत्मतुल्य व्यवहार करता है । ३ ऐसी सामायिक को हम तीन स्वरूप में देख सकते हैं - १. सम्यक्त्व सामायिक, २. श्रुतसामायिक और ३. चारित्र सामायिक । तीनों प्रकार की सामायिक से समभाव में स्थित रहा जा सकता है। चारित्र सामायिक भी अधिकारी की अपेक्षा से देश और सर्व में दो प्रकार के हैं । देश सामायिक चारित्र-गृहस्थों को और सर्व सामायिक चारित्र-साधुओं को होता है। समता, सम्यक्त्व शान्ति सुविहित आदि शब्द सामायिक के पर्याय हैं ।५
२. चतुर्विंशतिस्तव योग-चौबीस तीर्थंकर, जो कि सर्वगुणसम्पन्न आदर्श हैं, उनकी स्तुति-कीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है। इस आवश्यक के द्रव्य और भाव ऐसे दो भेद हैं । तीर्थंकरों की पूजा अर्चना आदि द्रव स्तव है और उनके वास्तविक गुणों का कीर्तन आदि भावस्तव है।६ मावस्तव द्वारा साधक के अहंभाव का नाश होता है, सद्गुणों के प्रति अनुराग होता है, और पाप कर्मों से उन्मुक्त होता है।
३. वंदन योग-मन, वचन और काया द्वारा पंच अंग से प्रणाम करना वंदन है। वंदन द्वारा पूज्यों के प्रति बहुमान प्रगट किया जाता है। आगमों में वंदन के चिति-कर्म, कृति-कर्म पूजा-कर्म आदि पर्याय प्रसिद्ध है ("
२. सर्वार्थसिद्धि-७-११ ३. आवश्यक वृत्ति-पृ. ५३ ४. आवश्यक नियुक्ति-७९६ ५. आवश्यक वृत्ति-पृ. ४९२ ६. आवश्यक नियुक्ति-गा. ११०३ ७. आवश्यक नियुक्ति-गा. ११०६