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योग- प्रयोग - अयोग / १४५
निर्दोषता की अपेक्षा से ये भेद हैं। सम्यग्दर्शन स्वयं संवर है और यह तो शुद्ध भाव ही हैं। इसीलिये यह आसव या बंध का कारण नहीं है । संवर साधना और प्रक्रिया
कर्म का केन्द्र बिन्दु है आस्रव और साधना का केन्द्र बिन्दु है संवर। अनन्त काल से आसव में घिरा हुआ साधक घोर अंधकार में सोया है उसे पता ही नहीं कि प्रकाश का द्वार कहाँ है। आस्रव और संवर दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। जहाँ आस्रव होता. वहाँ संवर नहीं रहता, जहाँ संवर होता है वहाँ आस्रव नहीं टिकता। आसव अंधकार है, संवर प्रकाश। जैसे-जैसे अंधकार टूटता है, प्रकाश छा जाता है। प्रकाश के रहने पर अंधकार को अवकाश नहीं। राग-द्वेष को स्थान नहीं । संवर प्रकाश है। निरावरण चैतन्य का अनुभव है । निरावरण सम्यक् की साधना है । सम्यक् साधना ही संवर साधना है। संवर की साधना शांति की साधना है। निर्विकल्प की साधना है। सूक्ष्म साधना है, शुभयोग की साधना है, स्वाधीनता की साधना है ।
संवर बीज रूप से तो स्वतः सभी भव्यात्मा में विद्यमान है, किन्तु जब व्यक्ति भोग्य पदार्थों में आबद्ध हो जाता है तब आसक्ति, लोभ, मोह आदि विकारों में बदल जाता है। जैसे नदी का निर्मल जल किसी गड्ढे में आबद्ध होने से विकृत हो जाता है। और अनेक विषैले कीटाणु पैदा करता है। इसी प्रकार आस्रव चारों ओर से संवर को घेरता है और विषैले कीटाणुओं को फैलाता है। इस विकृति का नाश करने के लिए प्रायोगात्मक उपाय ही आवश्यक हैं 1
संवर के क्षेत्र में चार प्रक्रिया समर्थ हैं - त्याग, वैराग्य, पश्चाताप, प्रायश्चित्त । इन्द्रियों की विजय, शब्द रूप, रस, गंध आदि विषयों के त्याग से है। त्याग संवर की प्रक्रिया है । वैराग्य-त्याग करने पर जो संज्ञाएँ जागृत हैं. उन पर वैराग्य होता है। जैसे उपवास आहार के त्याग से होता है, किन्तु पश्चात्ताप आहार के स्वाद से किये हुए पापों का होता है। पाप करना बुरा है किन्तु पाप होने के पश्चात् पश्चात्ताप न होना महापाप है। स्वस्वरूप को छोड़कर राग-द्वेष की प्रक्रिया पाप है। राग-द्वेष के अनुभव से संक्लेश के तंतु जुड़े हुए हैं, इस तंतु को तोड़ने के लिए पश्चाताप ही एक साधना है, पश्चाताप ही एक संवर है। पश्चाताप होने पर ही प्रायश्चित होता है। संकल्प करें कि राग-द्वेष जिससे पैदा होवें वैसी प्रक्रिया न करना प्रायश्चित - संवर है ।
संवर के कारण
तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाबीस परीषहजय और पाँच चारित्र इन छह कारणों से संवर होता है। जिस जीव के सम्यग्दर्शन होता है उसके हीं संवर के ये छह कारण होते हैं ।