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४. साधना का केन्द्र बिन्दु आश्रव निरोध - संवर
संवर योग संवर शब्दार्थ ___ संवर शब्द "सम्" उपसर्गपूर्वक "वृ" धातु से बना है। “सम्" पूर्वक "वृ" धातु का अर्थ रोकना होता है । जिस प्रवृत्ति के द्वारा कर्म के बन्धन को रोका जाय वह "संवर' है। "सु" धातु का अर्थ बहना होता है। अतः "आ-सव" का अर्थ कर्मपुद्गलों का आत्मा में बहना ऐसा होता है। कर्मपुद्गलों के इस स्राव का रूंधन ही "संवर' है। जैसे-जैसे आत्मदशा विशुद्ध होती जाती है, वैसे-वैसे कर्मबन्ध अल्प होते जाते हैं । आसव का निरोध होता जाता है और गुणस्थान की भूमिका होती जाती है। अतः आस्रव निरोध ही संवर कहा जाता है।
"संवियते-निरुध्यते कर्मणः कारणं प्राणातिपातादि येन परिणामेन स संवरः" अर्थात् कर्म के कारण रूप-प्राणातिपातादि का आत्मा के साथ जिस परिणाम विशेष का निरोध होता है, उसे संवर कहते हैं । अथवा "निरुद्धासवे संवरो" अर्थात् आत्मा मे जिन कारणों से कर्मों का आना रुक जाता है, उसे संवर कहते हैं । ___ आस्रव का निरोध होने पर आत्मा में जिस पर्याय की उत्पत्ति होती है, वह शुद्धोपयोग है, इसलिए उत्पाद की अपेक्षा से संवर का अर्थ "शुद्धोपयोग'' होता है। उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा में उपयोग का रहना या स्थिर होना संवर योग है। पर्याय की अपेक्षा से यह कथन निश्चयनय का है। उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा में जब जीव का उपयोग रहता है, तब नये विकारी आसव का निरोध अर्थात् पुण्य-पाप के भाव रुकते हैं । इस अपेक्षा से संवर का अर्थ नये पुण्य-पाप के भाव का निरोध होता है।
शुद्धोपयोग रूप निर्मल भावं प्रकट होने पर आत्मा में आने वाले नये कर्म रुकते हैं। अतः कर्म की अपेक्षा संवर का अर्थ होता है नये कर्म आसव का रुकना। इस प्रकार यहाँ संवरयोग का अर्थ अनेक दृष्टि से हुआ है।
१. समयसार श्लोक १८१