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३. प्रवृत्ति का परिणमन बन्ध हेतु का कारण
कर्मयोग
कर्म का अर्थ
कर्म का शाब्दिक अर्थ, कार्य प्रवृत्ति या क्रिया है। सामान्यतः हम जो कुछ भी करते हैं, वह कर्म है । उठना, बैठना, खाना, पीना, सोना इत्यादि । जीवन व्यवहार में
हम जो कुछ करते हैं वह कर्म कहलाता है। व्याकरण की दृष्टि से देखा जाये तो पाणिनि ने भी कहा है कि कर्तुरीप्सिततमं कर्म' जो कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट हो यह कर्म है।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव द्वारा जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं, अर्थात् आत्मा की रागद्वेषात्मक क्रिया चुम्बक के समान होने से आकाश प्रदेशों में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म के सूक्ष्म पुद्गल आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों में संश्लिष्ट हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं (२
कर्म पौद्गलिक है। जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हों, उसे पुद्गल कहते हैं। पृथ्वी, पानी, हवा आदि पुद्गल से बने हैं। जो पुद्गल कर्म बनते हैं, अर्थात् कर्म रूप में परिणत होते हैं, वे एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज अर्थात् धूलि है, जिसको इन्द्रियाँ (यन्त्र आदि की मदद से भी) नहीं जान सकती है, किन्तु सर्वज्ञ केवलज्ञानी अथवा परम् अवधिज्ञानी उसको अपने ज्ञान से जान सकते हैं। कर्म बनने योग्य पुद्गल जब जीव द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, तब उन्हें कर्म कहते हैं ।
संसारी जीव सक्रिय होने से मन, वचन और काया के योग से शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करता रहता है। इस प्रवृत्ति का परिणाम कर्म बन्ध कहा जाता है। हर प्रवृत्ति का परिणाम कर्मबंध का हेतु है। कर्म के साथ-साथ बंध होता ही है। क्योंकि प्रत्येक क्रिया परिणाम तत्काल लाती है। फिर उसका उपभोग जब कभी भी होवे । बन्ध उसी क्षण
१. पाणिनि व्याकरण - १/४/४८ ( राजवर्तिक)
परमात्म प्रकाश १/६२
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३.
(क) तत्त्वार्थसूत्र अ. ५, सूत्र २३
(ख) व्याख्या प्रज्ञप्ति - श. १२, उ. ५, सू. ४५०