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१३८ / योग-प्रयोग-अयोग
चौथे ध्यान में निमग्न जीव क्रिया रहित होता है। इसीलिए तीसरे ध्यान में तो जीव सूक्ष्म कायिक क्रिया सहित ही रहता है। "क्रिया का अभाव"
अयोग अर्थात् निरोध क्रिया "शैलेषीकरण योग निरोधात् नौ एजते" योग का निरोध होने से शैलेशी अवस्था में ऐर्यापथिक और एजनादि क्रियाएं बन्द हो जाती हैं क्योंकि क्रियाओं का न होना अक्रिया है। कर्म के शोधन से अक्रिया होती है। अक्रिया से निर्वाण अर्थात् कर्मों से मुक्ति होती है, तत्पश्चात् जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है तथा परिनिर्माण को प्राप्त कर सर्व दुःखों का अन्त करता है। सिद्ध-गतिगमन रूप पर्यवसान फल अर्थात् अन्तिम फल को प्राप्त करता है।
संसार समापन्न और असंसार समापन्न के अनुसार जीव सक्रिय और अक्रिय होता है। असंसार समापन्न जीव सिद्ध होते हैं, और वे अक्रिय होते हैं। संसार समापन्न जीव शैलेशी प्रतिपन्न तथा अशैलेषी प्रतिपन्न ऐसे दो प्रकार हैं । शैलेषी प्रतिपन्न ही अक्रिय है।
अतः प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के सभी जीव सक्रिय हैं। वे प्रतिक्षण कोई न कोई क्रिया करते रहते हैं, किसी भी क्षण में अक्रिय नहीं होते हैं, अतः सर्व आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता ही रहता है। .
कर्मयोग और ज्ञानयोग से होने वाली स्थितियाँ
कर्मयोग
- ज्ञानयोग १. ज्ञान की प्रधानता में ज्ञान योग । २. इन्द्रिय और मन के शमन की अपेक्षा
१. कर्म की प्रधानता में कर्म योग । २. आवश्यकादि सत् क्रियाओं की
अपेक्षा । ३. देशविरति श्रावक धर्म की स्पर्शना
४. सावद्य योग की प्रवृत्ति ५. स्वर्गादि फल का संकल्प ६. चित्तशोधक रहित . •७. कर्मयोग अभ्यास दशा ८. स्थान, उर्ण, अर्थ युक्त कर्म योग ९. प्रकृष्ट पुण्य कर्मोदपादक कर्मयोग
३. सर्वविरति मुनि महात्माओं की
स्पर्शना । ४. निरवद्ययोग की प्रवृत्ति । ५. मोक्ष फल का संकल्प । ६. चित्त शोधन । ७. समाधि दशा । ८. सालंबन और निरालंबन ध्यान ९. विशिष्ट निर्जरा ।