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योग-प्रयोग-अयोग/१३५
कर्म बन्ध के हेतु
कर्मबन्ध के दो हेतु हैं राग और द्वेष । इन दोनों के द्वारा मोह प्रबल होता है। फलतः जानना और देखना दोनों प्रवृत्ति पर आवरण छा जाता है। इस आवरण से मिथ्या दृष्टि, बहिर्वृत्ति, और दुर्बुद्धि उजागर होती है। यह निर्विवाद है कि जब तक मिथ्यात्व का उदय होगा आकांक्षा जीवित रहेगी, आकांक्षा प्रमाद को जन्म देती हैं। यह प्रमाद ही दुःख है और दुःख ही संसार है। इस प्रकार कर्म के बन्धन से संसार परिभ्रमण होता है। कहा भी है-संसार अध्रुव है अशाश्वत है और प्रचुर दुख से भरा हुआ है। इस प्रकार दुःख कर्म बन्ध का परिणाम है।
दुःख का सम्बन्ध राग से भी है और द्वेष से भी है। इन्हीं सम्बन्ध से क्रोध, काम, मद, लोभ, रूप आसक्ति पुष्ट होती है। माया और लोभ का राग में और क्रोध और मान का द्वेष में समावेश होता है। इस प्रकार कर्म से रागद्वेष और रागद्वेष से कर्म बन्ध होता ही रहता है। इस चक्रव्यूह की गति वीतराग दशा में ही रुकती है अन्यथा चलती ही रहती है।
इस प्रकार कर्म का आकर्षण केन्द्र राग-द्वेष है। कर्म की तीव्रता और मंदता राग-द्वेष पर निर्भर है। कर्म संक्रमण की प्रक्रिया राग-द्वेष है। राग-द्वेष जितने तीव्र होंगे कर्म परमाणु उतने ही तीव्र चिपकते रहेंगे। अतः राग-द्वेष से वैरभाव होता है, राग-द्वेष से विरोध भाव होता है, राग-द्वेष से मानसिक अशान्ति होती है, राग-द्वेष से मानसिक बीमारी होती है और राग-द्वेष से संक्लेश होता है। कर्म के हेतु-भाव और द्रव्य
राग और द्वेष से जिन कर्मों का आकर्षण होता है वे हमारे भावों पर निर्भर होते हैं। मन वचन और काया के अशुभ योग से, अशुभ लेश्या और अशुभ अध्यवसाय भाव कर्म कहे जाते हैं। कर्म, कर्म का बन्ध, कर्म का अनुबन्ध आदि का विस्तृत वर्णन करने से कोई लाभ नहीं है। लाभ है हमारे भावों का निरीक्षण करने में । राग-द्वेष का क्षण भाव कर्म हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षण भावकर्म है। भाव-कर्म ही द्रव्य कर्मों को प्रभावित करता है। द्रव्य कर्म भाव को उत्तेजित करता है। इस प्रकार भाव का प्रभाव द्रव्य पर और द्रव्य का प्रभाव भाव-कर्म पर होता रहता है।
हमें इस भाव कर्म को रोकना है। ध्यान द्वारा, साधना द्वारा, अप्रमत्तता द्वारा जागृति द्वारा इन भावकों को निष्प्राण करना है। जब तक भाव कर्म जिन्दा है तब तक
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उत्तराध्ययन अ. ८. गा. १