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१. साधना की फलश्रुति जड़ - चैतन्य का विवेक ज्ञान
ज्ञान योग ज्ञानयोग का स्वरूप
ज्ञानानुसार आचरण के समान न तो कोई विवेक है, न कोई त्याग है, न कोई प्रायश्चित है और न कोई तप है। क्योंकि अनुभवात्मक ज्ञान होते ही स्थूल और सूक्ष्म, नित्य और अनित्य, योग और भोग, आसक्ति और अनासक्ति, प्रमाद और अप्रमाद अवस्था का भेद स्वतः प्राप्त होता है। __शास्त्रवार्ता समुच्चय में "ज्ञानयोग स्तपः१तप को ही ज्ञानयोग कहा है। "भव कोडी संचय कम्मं कवसा निज्जरिज्जई" क्योंकि ज्ञान युक्त तप में करोड़ों भव के संचित कर्म को तोड़ने की शक्ति विद्यमान हैं।
जिस प्रकार भूमि रहित बीज फलित नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानयोग के अभाव में मन, वाणी और कर्म रूप सद्प्रवृत्ति के संस्कार फलित नहीं होते। अतः ज्ञानयोग ही जड़ और चैतन्य का भेद ज्ञान कराने में समर्थ है।
सम्पूर्ण साधना का समावेश ज्ञानयोग में निहित है क्योंकि सभी साधना का फल अवश्य मिलता ही है। चाहे हेय साधना हो या उपादेय हो, हर प्रवृत्ति का स्वतन्त्र प्रभाव होता ही है। जैसे पुण्य से सुख मिल सकता है, किन्तु चिर शांति तथा स्थायी प्रसन्नता नहीं मिल पाती। चिर शांति और स्थायी प्रसन्नता की प्राप्ति ज्ञानयोग से ही प्रकट होती है। ___ जहाँ मन, वचन और कायरूप शुभयोग सत्प्रवृत्ति है वहाँ ज्ञानोपयोग होता ही है, जहाँ ज्ञान है वहाँ अज्ञान टिक नहीं सकता जैसे सूर्य की प्रथम किरण आते ही अन्धकार टूटता जाता है, वैसे ही ज्ञान होते ही अज्ञान टूटता जाता है। हेतु की दृष्टि से
ज्ञानी के ज्ञान में जो अनुभूत है वही जाना जाता है, माना जाता है, और स्वीकारा
१. शास्त्रवार्ता समुच्चय श्लो. २१ पृ. ७४ २. उत्तराध्ययन ३०/६