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११२ / योग- प्रयोग- अयोग
प्राणायाम से लाभ
प्राणायाम से शरीर वायु, मानसिक तनाव और अनेक व्याधियाँ आदि विशुद्ध होती हैं ये बाह्य शुद्धि है। आन्तरिक शुद्धि इन्द्रियजय, मनोजय, कषायजय इत्यादि हैं जिसका प्राणजय से रूपान्तर होता है ।
इन्द्रियविजय, मनोविजय, कषायविजय-इन शब्दों से हम सुपरिचित हैं किन्तु प्राणविजय शब्द से हम सुपरिचित नहीं हैं। जैन परम्परा में ऐसी धारणा है कि प्राणायाम हमारी परम्परा में मान्य नहीं है, वह महर्षि पतंजलि तथा हठयोग की परम्परा में मान्य रहा है। क्योंकि आवश्यक नियुक्ति में श्वास का निरोध न किया जाए ऐसा उल्लेख मिलता है। किन्तु यह निषेध किसी विशेष स्थिति में किया गया प्रतीत होता है। भद्रबाहु स्वामी महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उसकी आधार - भित्ति भाव प्राणायाम है । ३ अन्य अनेक आचार्यों ने ध्यान संवरयोग की साधना की है। उसमें भी भाव प्राणयाम प्रमुख होता है। महाप्राण साधना या ध्यान योग की साधना में अनेक वर्ष व्यतीत हो जाते थे तथा किसी प्रमादवश प्राणहानि भी हो जाती थी। संभव है इसी कारण आवश्यक निर्युक्ति में श्वास-1 -निरोध का निषेध किया गया होगा ।
प्राणायाम जैन-परम्परा से असम्भव नहीं है। प्राणायाम के बिना प्राण - विजय नहीं हो सकती और उसके बिना इन्द्रियविजय, मनोविजय और कषायविजय का होना साधारणतया संभव नहीं है ।
६. प्रतिसंलीनता (प्रत्याहार)
आगमों में प्रत्याहार के स्थान में प्रतिसंलीनता शब्द प्रयुक्त हुआ है । प्रतिसंलीनता का अर्थ है – स्वः लीनता अर्थात् आत्मा के प्रति लीनता । परन्तु विभाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया ही वास्तव में प्रतिसंलीनता है। इसलिए संलीनता को स्व-लीनता अपने-आपमें लीनता भी कह सकते हैं ।
मन और इन्द्रियों को शब्दादि विषयों से हटाकर अपनी इच्छा के अनुकूल स्थापना करना प्रत्याहार है। १४ प्रतिकूल आहारः वृत्तिः प्रत्याहार । अर्थात् इन्द्रियों की बहिर्मुखता नष्ट होने पर वे अन्तर्मुखी हो जाती हैं, मन के साथ निरुद्ध हो जाती हैं, तब
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१३. जैनागमों में दस प्राण हैं, उसमें श्वासोच्छ्वास भी एक प्राण है। चौदह पूर्वों में बारहवाँ पूर्व "प्राणायु" नाम का था उसमें भाव प्राणायाम योग आदि का स्वरूप बनाया था। भद्रबाहु स्वामी ने नेपाल जाकर महाप्राण की आराधना की थी।
१४. - ज्ञानार्णव २७/१