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९८/योग-प्रयोग-अयोग
हेमचन्द्राचार्य ने कायोत्सर्ग को ही समाधि कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने एकाग्र और निरुद्ध चित्त को समाधि कहा है । १५
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में वीतराग भाव में भावित आत्मा परम समाधि को पाता है ऐसा बताया है ।१६।।
योगीन्दु देव ने समस्त विकल्पों का विलय होने को परम समाधि कहा है परमसमाधि में स्थित साधक शुभ या अशुभ सभी प्रकार के विकल्पों से विमुक्त होता
आचार्य जिनसेन के शब्दों में चित्त जब उत्तम परिणामों में स्थित होता है तब यथार्थ समाधान होता है, इस समाधान को ही समाधि कहा है । १८
रामसेनाचार्य ने समरसीभाव को समाधि कहा है १९ जिसमें ध्याता ध्येय में लीन हो जाता है । इस तदूप क्रिया को समाधि कहते हैं ।
पूज्यपाद स्वामी के अनुसार चैतन्य स्वरूप में एकाग्र होना योग समाधि है ।२०
इस प्रकार निरवद्य क्रिया के समस्त अनुष्ठान को योग कहते हैं । जो समाधि और सम्यक् प्रणिधान अर्थ में प्रयुक्त है ।२१ समाधि के प्रकार
सामान्य रूप से समाधि दो प्रकार की है-१. द्रव्य समाधि, २. भाव समाधि ।
१. द्रव्य समाधि-द्रव्यमेव समाधिः द्रव्य समाधिः जिस द्रव्य से समाधि प्राप्त होती है, उसे द्रव्य समाधि कहते हैं। जैसे व्यक्ति, परिस्थिति, पदार्थ अवस्था आदि के संयोग से होने वाली शांति, आनन्द, प्रसन्नता इत्यादि । अर्थात् जो भी द्रव्य संयोग से समाधान मिलता है, वह द्रव्य समाधि है।
२. भाव समाधि-जिस भाव में साधक, सम्यक चारित्र में स्थित होता है, वह भाव समाधि हैं।
१५. एकाग्रे निरुद्ध चिते समाधिरति-द्वा. ११ द्वा. १६. नि. सा./मू. १२२ १७. परमात्म प्रकाश-२/१९० १८. महापुराण सर्ग-२१ श्लो. २२६ १९. तत्त्वानुशासन गा. १३७ २०. समाधितन्त्र-गा. १७ की टीका पृ. ३२ २१. एकाग्रे निरुद्ध चित्ते समाधिरति-द्वा. ११ द्वा.