________________
योग-प्रयोग-अयोग/९९
भाव समाधि सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के भेद से चार प्रकार की है। दर्शन समाधि में साधक आत्म-साक्षात्कार में संलग्न रहता है। ज्ञान समाधि में साधक आत्मा को जानता है। और
चारित्र समाधि में स्थित साधक परमात्मा की आज्ञा में स्थिर रहता हुआ आराधना में संलग्न रहता है। ___ तप समाधि में स्थित साधक क्षुधा परिषह जयी और ग्लानि रहित ज्ञान ध्यान से स्वात्मा में संलीन रहता है।
समाधि के और भी दो प्रकार हैं-सविकल्प और निर्विकल्प।
सविकल्प समाधि-सविकल्प समाधि में साधक मन को विशिष्ट ध्येयतत्व पर एवं मन्त्र पर स्थिर करता है तथा शुभ संकल्प करता है कि मेरे चतुर्गति के दुखों का क्षय हो, अष्ट कर्मों का नाश हो, बोधिलाभ की प्राप्ति हो, समाधिमरण हो, जिनेश्वर भगवन्त की भक्ति-गुणानुरागी हो।
वैज्ञानिकों के अनुसार समाधि अल्फा तरंगों का एक रूप है। अल्फातरंगों के संवर्धन से आनन्द की उपलब्धि होती है । आनन्द के अवसर में व्हाइट सैल्स रेड सैल्स के रूप में रूपान्तरित होते हैं । इसलिए, प्रसन्नता में जितने रेड सैल्स बढ़ते हैं उससे अधिक मां के वात्सस्य में बढ़ते हैं, उससे अधिक गुरुवर्यों के आशीर्वाद से बढ़ते हैं, उससे अधिक परमात्मा के अनुग्रह से प्राप्त समाधि में स्थित होने से बढ़ते हैं।
हठयोग में शारीरिक श्वास, प्राणायाम आदि को समाधि कहा है। भक्तियोग में परमात्मा की भक्ति में संलग्न रहना ही समाधि मानी है। राजयोग में चित्तवृत्ति निरोध को समाधि कहा है।
किन्तु ज्ञानी महापुरुषों ने सच्चिदानन्दमय आत्मस्वरूप में संलग्न रहने वाले साधक की समाधि को मान्य किया है। ऐसी समाधि सविकल्प समाधि है।
निर्विकल्प समाधि-सविकल्प समाधि का परिपूर्ण अभ्यास होने पर ही निर्विकल्प समाधि में प्रवेश हो सकता है। सविकल्प ध्यान से ही निर्विकल्प समाधि पर पहुँचा जा सकता है, अतः सविकल्प समाधि के बिना निर्विकल्प समाधि असंभव है।
निर्विकल्प समाधि में समस्त विकल्प विलीन हो जाते हैं। अतः निर्विकल्प दशा में साधक ज्ञाता-दृष्टा रूप स्वात्मा में संलग्न रहता है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य का आस्वादन करता है। क्रमशः गुण श्रेणी