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योग-प्रयोग-अयोग/१०५
और गीत इन विषयों में-आज, एक दिन, एक रात, एकपक्ष, एकमास, दोमास, छहमास इस प्रकार काल के विभाग से त्याग करना भी नियम कहा जाता है । ५
श्रावकों के लिये भी अनेक नियम रखे गये हैं जैसे-मधु, मद्य, मांस, जुआ, रात्रिभोजन, वेश्यासमागमन इत्यादि का नियम आवश्यक रूप से होता है। . नियम शब्द का एक अर्थ रक्षण भी होता है।
जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है, अतः यम और नियम का अर्थ भी निवृत्तिपरक ही होगा। अतएव विभाव परिणति से हटकर स्वभाव की ओर रुचि होना ही यम और नियम है। यम अर्थात् ; संयम, संयम के प्रधान दो भेद हैं-प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम। समस्त प्राणियों की रक्षा करना, मन, वचन, काय से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना तथा मन में राग-द्वेष की भावना न उत्पन्न होने देना प्राणिसंयम है और पंचेन्द्रियों (पाँचों इन्द्रियों) पर नियन्त्रण करना इन्द्रियसंयम है। पाँचों व्रतों का धारण, पाँचों समितियों का पालन, चारों कषायों का निग्रह, तीन दण्डों-मन, वचन, काय की विपरीत परिणति का त्याग और पाँचों इन्द्रियों को विजय करना ये सब संयम के अंग हैं । जैन यम नियमों का विधान राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति को वश में करने के लिए ही किया गया है। अतः नियम को प्राचीन युग में योग संग्रह कहा जाता था।
३. कायाक्लेश (आसन) योग का तीसरा अंग कायाक्लेश है। परिहार विशुद्ध चारित्र में प्रवृत्त होने वाले साधक को ध्यान के लिये कायाक्लेश की नितान्त आवश्यकता है। जैनागमों में छ: प्रकार के बाह्य तप में पाँचवें कायक्लेश नामक तपोभेद में योग के इस तीसरे आसन अंग का भलीभाँति वर्णन किया गया है और उसमें अनेक प्रकार के आसनों का नाम निर्देश किया है।
स्थानांग सूत्र में सात प्रकार का कायक्लेश रूप आसन योग का निरूपण प्राप्त होता है जैसे
सत्तविहे कायकिलेसे पण्णत्ते तं जहांठाणाइए, उक्कुडुयासणिए, पडिमट्ठाइ, वीरामणिए णेसणिज्जे, दंडाइए, लगंडसाई । ६ कायक्लेश सात प्रकार का बताया है-कायोत्सर्ग करना, उत्कटूक आसन से
५. रत्नकरंड श्रावकाचार-८७-८८-८९ ६. स्थानांग ७ / सूत्र ५५४