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९६ / योग-प्रयोग-अयोग
नहीं रहती। अंतिम दो चरणों के पूर्व में समाधि का उल्लेख जैनागमों में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है और समाधि के लिए उपयुक्त स्थानों का भी अनेक स्थान पर वर्णन मिलता है किन्तु समाधि शब्द से सभी स्थान पर ध्यानविशेष ही ग्रहण हुआ है। समाधि की परिभाषा
शीलांकाचार्य की भाषा में समाधि अर्थ में तीन परिभाषा उपलब्ध होती हैं। १. समाधि इन्द्रिय प्राणिधानम् । २. समाधि सन्मार्गनिष्ठानरूपम् ।
३. मोक्षं तन्मार्ग वा प्राप्ति येनात्मा धर्मध्यानात् सा समाधि । ६ तीनों परिभाषा सापेक्ष हैं।
शब्द रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषय-वासनाओं का उदात्तीकरण इन्द्रिय प्राणिधान है। हमारी विषय-वासना वृत्तियों का क्षयोपक्षम (सब्लीमेशन) होता है, और क्षय (ट्रान्सफोरमेशन) होता है। उससे भी आगे आवेगों का समाप्तिकरण भी होता है। जब आवेगों का संवेग और निर्वेद में रूपान्तरण होता है तब समाधि का प्रथम चरण प्रारम्भ हो जाता है।
द्वितीय परिभाषा में सन्मार्गानुष्ठान से सम्यक् अनुष्ठान या सम्यक् आचार को समाधि माना है। भौतिक जीवन मूर्छामय प्रगाढ़ तिमिरमय होता है। उस तिमिर में ज्योति लाने का कार्य सन्मार्गानुष्ठान से प्रारम्भ होता है और समाधि में अन्त होता है। राग और द्वेष की तीव्र ग्रन्थि का हास होने पर सम्यक् क्रान्ति होती है वही क्रान्ति समाधि में प्रकाश लाती है।
तृतीय परिभाषा धर्मध्यान और धर्मध्यान से मोक्ष प्राप्ति के रूप में मिलती है।
आध्यात्मिक चेतना के अंतरंग भाव से साधक अनुकूल-प्रतिकूल, मनोज्ञअमनोज्ञ आवेगों का उपशम क्षयोपशम और क्षय करने में समर्थ होता है। यह समाधि की ऐसी भूमिका है इसमें साधक धर्मध्यान से शुक्लध्यान और शुक्लध्यान से पुनः धर्मध्यान की स्पर्शना करता रहता है। साधक धर्मध्यान से समाधि में स्थिर होता है किन्तु अधिक समय टिकता नहीं है अतः पुनः समाधि से धर्मध्यान में आता-जाता रहता है, इस प्रकार समाधि से अंतिम ध्येय मोक्ष तक पहुँच जाता है।
४. आचारांग-श्रु. १, अ. ६, उ. ४ सू. १८५ की टीका ५. सूत्रकृतांग-श्रु. १, अ. १४ की टीका पृ. १९७ ६. सूत्रकृतांग-टीका अ. १०