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५. शुभ योग का अंतिम बिन्दु-निष्पत्ति और फलश्रुति
योग और समाधि शुभ योग के आलंबन से साधक प्रथम चिन्तन में फिर ध्यान में और अन्त में समाधि में संलीन होता है। शुभ योग समाधि की पूर्व भूमिका है और समाधि शुभ योग का अंतिम स्वरूप है, अतः शुभ योग की संलग्नता से जो समरसता रूप निष्पत्ति या फलश्रुति प्राप्त होती है, वह समाधि है। समाधि शब्दार्थ
योग अर्थ में समाधि अंतर्निहित है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में योग शब्द का अर्थ समाधि और ध्यान दोनों किया गया है। "पद्मनन्दि पंचविंशतिका में समाधि के अर्थ में साम्य, स्वास्थ्य, योग चित्त निरोध और शुद्धोपयोग इत्यादि शब्दों का प्रयोग मिलता है।
ध्यान जब ध्येय के आवेश के प्रभाव से ध्यानभाव, ध्येय भाव और ध्यातृभाव दृष्टि से शून्य हो जाता है-केवल प्रशस्त ध्येयाकार को धारण करता है, तब उसे समाधि कहते हैं । ३ जैन योग में समाधि का स्थान शुक्लध्यान की प्रारम्भावस्था है। वास्तव में ध्यान, योग का अपर नाम ही समाधि है और उसकी उत्कृष्टता शुक्लध्यान में है। शुक्लध्यान के चार चरणों में से पूर्व के दो चरण समाधि अवस्था में होते हैं। शुक्लध्यान के अंतिम दो चरण चौदहवें गुणस्थान में अयोगी अवस्था में होते हैं, यह शुक्लध्यान की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है। ऐसी अवस्था में समाधि की आवश्यकता ही
१. युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् ।
राजवार्तिक ६/१/१२/५०५/२७ २. साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतो निरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थ वाचकाः
पद्मनन्दिपंचविंशतिका अधिकार-४-श्लो. ६४ 3. तदेव ध्यानं यदा ध्येयावेशवशाद ध्यान-ध्येय-ध्यात भाव दृष्टि शून्यं सद्धयेयमात्राकारं भवति, तदासमाधि रुच्यते।
योगसार संग्रह-२ अंश पृ. ४६