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८८ / योग-प्रयोग-अयोग
पहली तीन लेश्याओं में अविवेक और अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक रहा हुआ है। प्रथम लेश्या में अविवेक और अन्तिम लेश्या में विवेक पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ होता है। पहली तीन लेश्याओं में विवेक की मात्रा उत्तरोत्तर घटती जाती है, जबकि अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। पहली तीन लेश्याओं में निबिड पापरूप बन्धन क्रमशः ज्यादा कम होता जाता है जबकि अन्तिम तीन लेश्याओं में पुण्यरूप कर्म बन्ध की अभिवृद्धि होती जाती है तथा निर्जरा का तत्व उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। योग-लेश्या-निरोध
तेरहवें गुणस्थान के शेष अन्तर्मुहूर्त के प्रारम्भ में योग का निरोध प्रारम्भ होता है। मनोयोग तथा वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्द्ध निरोध होता है। उस समय में लेश्या का कितना निरोध या परित्याग होता है इसके सम्बन्ध में कोई तथ्य या पाठ उपलब्ध नहीं हुआ है। अवशेष अर्द्ध काययोग का निरोध होकर जब जीव अयोगी हो जाता है तब वह अलेशी भी हो जाता है। अलेशी होने की क्रिया योग निरोध के प्रारम्भ होने के साथ-साथ होती है या अर्द्ध काययोग के निरोध के प्रारम्भ के साथ-साथ होती है - वह कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह निश्चित है कि जो संयोगी है वह सलेशी है तथा जो अयोगी है वह अलेशी है। जो सलेशी है वह सयोगी है तथा जो अलेशी है वह अयोगी है। इस प्रकार योग और लेश्या का पारस्परिक सम्बन्ध है। योग और लेश्या से प्राप्त लाभ -
शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और भावात्मक-लाभ भावों के अनुरूप लेश्या का रंग शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श का रूपान्तरण रसास्वाद से हानि और रस विजय से लाभ वर्ण ध्यान से वृत्तिसंक्षय ।