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३. तनाव का मूल केन्द्र बन्ध हेतु का स्वरूप
योग और बन्ध आगम के अनुसार योग और बन्ध का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। जहाँ बन्ध होता है वहाँ योग का होना अनिवार्य है। सर्व प्रथम आत्मा में कर्मपुद्गल को ग्रहण करने का काम योग (मन, वचन और काया की क्रिया) का है जिसे जैन दर्शन आश्रव कहते हैं। आश्रव अर्थात् कर्म आने का स्थान ।
जैसे-गरम लोहपिण्ड यदि पानी में डाला जाये तो वह चारों ओर से पानी को खींचता है उसी तरह कषाय से संतप्त जीव योग से लाये गये कर्मों को सब ओर से ग्रहण करता है। इस प्रकार इन कर्म पुदगलों को योग द्वारा आत्मा के साथ संयोजित करने का काम कर्म बन्ध का है।
कर्म रूप से परिणत होने वाले अणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्ध होता है। सम्बन्धं तथा आत्मा की शुभाशुभ प्रत्येक प्रवृत्ति में मन, वाणी और शरीर का किसी न किसी प्रकार से सम्बन्ध रहता है अतः मानसिक, वाचिक और कायिक रूप योग व्यापार ही बन्ध कहलाता है ।२ बंध व्युत्पत्ति
संसारी आत्मा सक्रिय है वह प्रतिक्षण कर्म बंध से आबद्ध रहती हैं। इस दृष्टि से बन्ध शब्द की व्युत्पत्ति-बंधन बँधः । जो बांधा जाता है उसे बंध कहते हैं कषाय सहित होने से जीव जिन कर्मयोग पुद्गलों को ग्रहण करता है उसे बंध कहा जाता है।३ बंध की परिभाषा . 'बन्धो जीवस्य कर्म पुद्गल संश्लेष' अर्थात् जीव का कर्म पुद्गलों के साथ
१. राजवर्तिक-६/२/४, ५/५०६ २. स्थानांग सूत्र-३ स्था. की वृत्ति पं. ८ ३. स्थानांग सूत्र-स्था. सू. ८ की वृत्ति पृ. २५ । ४. समवायांग सूत्र-सम. सूत्र १ की वृत्ति पृ. ५