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योग-प्रयोग-अयोग/९१
मन्द, तीव्र, तीव्रतर आदि रूप में रस देने की योग्यता इनमें आती है वह कषाय के निमित्त से आती हैं। ___ सामान्यतः बन्ध अनिवृत्तिकरण से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान वाले जीवों की अपेक्षा से जानना चाहिए तथा जो विशेष रूप में उपशान्त मोह, क्षीण मोह और संयोगि केवलियों को होता है वह योग प्रत्यय ही होता है । जैनागमों में इसे इर्यापथिक बन्ध कहा है। बन्ध के प्रकार
बन्ध के चार प्रकार हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । कर्म पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण होते हैं और परिस्थिति के अनुसार कर्मरूप परिणाम को प्राप्त होते हैं। उसी समय उसमें चार प्रकार प्राप्त होते हैं । वे प्रकार ही बंध के भेद कहे जाते हैं। जैसे गाय के द्वारा खाया हुआ घास दूध में परिणत होता है तब उसमें मधुरता का स्वभाव निर्मित होता है। वह स्वभाव कुछ समय तक उसी रूप को धारण कर सके वैसी काल मर्यादा उसमें निर्मित होती है। इस मधुरता में तीव्रता, मंदता आदि विशेषताएँ होती हैं और इस दूध का पौद्गलिक परिणाम भी साथ ही बनता है। ठीक उसी प्रकार जीव द्वारा प्राप्त हुए कर्म पुद्गलों में भी चार प्रकारों का निर्माण होता है। वे चार प्रकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश बंध हैं।' योग और बन्ध से प्राप्त हानि
दुःख प्राप्ति रूप शारीरिक वेदना, संक्लेश भाव से मानसिक हानि, ईर्ष्या, अहं, वैर से प्रतिपक्ष की भावना, विषम भाव में निरन्तर रहना,
८. कर्मग्रन्थ भा. १ गा. २