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योग-प्रयोग- अयोग / ९
इत्यादि जो भी क्रियाएँ हैं उन समस्त क्रियाओं में योग का प्रयोगात्मक स्थान है। जैसे चलते समय विकल्प रहित चलना, विकल्प रहित बैठना, विकल्प रहित खाना आदि ।
योग को अनेक प्रवृत्तियों से हटाकर किसी एक प्रक्रिया में केन्द्रित करने से मन स्थिर हो जाता है और साधक की साधना निर्बाध रूप से वर्तमान होती रहती है। एकाग्रता के अभाव में प्रत्येक साधना असाध्य होती है। जैनागमों में ऐसी साधना द्रव्य साधना कही जाती है और जब मन उसी शुभ चिन्तन में संलग्न हो जाता है, तब वह भाव साधना कही जाती है। जैसे भाव आवश्यक आदि प्रक्रिया भावसाधना है ।
इस प्रकार जैनागमों में योग शब्द-संयम, समाधि, ध्यान, संवर, तपं इत्यादि रूप में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु इतना ध्यान अवश्य रहे कि मन, वचन और काया का व्यापार ही इन सारी प्रवृत्ति में विद्यमान है। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति शुभयोग में परिणमन होती है तब संवरयोगी संयम, समाधि, ध्यान और कायोत्सर्ग जैसी आराधना में आसीन रहता है ।
चित्त निरोध का उपाय
एक बार गणधर गौतम के मन में जिज्ञासा हुई कि मन योग तो है किन्तु ऐसा कौनसा माध्यम है जिससे चित्तं का निरोध हो सके ? अभिव्यक्त जिज्ञासा के प्रत्युत्तर में परमात्मा ने कहा - " एगग्ग-मण संनिवेसणयाए णं चित्त निरोहं करेइ" - वत्स मनयोग है लेकिन किसी एक आलंबन पर स्थिर करने (रूप प्रयोग) से चित्त का निरोध अवश्य हो सकता है | १४
मन को एकाग्रता में स्थापित करने के तीन उपाय श्रेष्ठ हैं
१. एक ही पुद्गल में दृष्टि को निविष्ट कर देना १५.
२. मन को एक ही शुभ अवलम्बन में स्थिर करना, ३. चित्त में विकल्पों का न उठना ।
चित्त में प्रतिपल विकल्पों का आवागमन छाया रहता है। मन को एकाग्र करने से विकल्पों का जाल शान्त होता है। विकल्पों का न उठना ही निर्विकल्प दशा मानी जाती
१४. एगग्ग मण संनिवेसणयाए णं चित्त निरोह करेइ । उत्तराध्ययन सूत्र २९ / २६ १५. एकपोग्गल - निविट्ठ दिट्ठिति अंतकृत - गजसुकुमार मुनि वर्णन