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६४ / योग-प्रयोग-अयोग
अनुयायी और श्रमण संस्कृति के उपासक प्राचीन विद्याधर अर्थात् भारतीय द्रविड जाति के पूर्वज थे ऐसा प्रतीत होता है। ___ सर जॉन मार्शल का कथन है कि "सिन्धु-संस्कृति एवं वैदिक-संस्कृति के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि इन दोनों संस्कृतियों में परस्पर कोई सम्बन्ध या सम्पर्क नहीं था। वैदिक धर्म सामान्यतया अमूर्तिपूजक है जब कि मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में मूर्तिपूजा सर्वत्र स्पष्ट परिलक्षित होती है । मोहनजोदड़ो के मकानों में हवनकुण्डों का सर्वथा अभाव है।" इन अवशेषों में नग्न पुरुषों की आकृतियों से अंकित मुद्राएँ बहुसंख्या में मिलती हैं । जॉन मार्शल के अनुसार वे प्राचीन योगियों की मूर्तियाँ हैं । एक अन्य विद्वान का कथन है कि "ये मूर्तियाँ स्पष्टतया सूचित करती हैं कि धातुपाषाण काल में सिन्धु घाटी के निवासी न केवल योगाभ्यास ही करते थे बल्कि योगियों की मूर्तियों की पूजा भी करते थे"। "रामप्रसाद चाँदा का कथन है कि "सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में अंकित देवमूर्तियाँ विशेष योगमुद्रा में हैं और उस सुदूर अतीत में सिन्धुघाटी में योग मार्ग के प्रचार को सिद्ध करती हैं । खड्गासन देव मूर्तियाँ भी योग मुद्रा में हैं । वे कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। यह कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा विशिष्टतया जैन दर्शन में पायी जाती है। आदिपुराण आदि मे इस कायोत्सर्ग मुद्रा का उल्लेख ऋषभ या वृषभदेव के तपश्चरण के सम्बन्ध में बहुधा हुआ है। जैन ऋषभ की इस कायोत्सर्ग मुद्रा में खड्गासन प्राचीन मूर्तियाँ ईस्वी सन् के प्रारम्भ काल की मिलती हैं। प्राचीन मिस्त्र में प्रारम्भिक राज्यवंशों के समय की दोनों हाथ लटकाये खड़ी मूर्तियाँ मिलती हैं। यद्यपि इन प्राचीन मिस्त्री मूर्तियों तथा प्राचीन यूनानी करोइ नामक मूर्तियों में प्रायः वही आकृति है तथापि उनमें उस देहोत्सर्ग-निस्संग भाव का अभाव है जो सिन्धु घाटी की मुद्राओं पर अंकित मूर्तियों में तथा कायोत्सर्ग मुद्रा से युक्त जिन मूर्तियों में पाया जाता है। ऋषभ शब्द का अर्थ वृषभ है और वृषभ जैन ऋषभदेव का लांछन है।" वस्तुतः सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में वृषभ युक्त कायोत्सर्ग योगियों की मूर्तियाँ अंकित मिली हैं जिससे यह अनुमान होता है कि वे वृषभ लांछन युक्त योगीश्वर ऋषभ की मूर्तियाँ हैं । ऋषभ या वृषभ का अर्थ धर्म भी है शायद इसीलिए कि लोक में धर्म सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभ के रूप में ही प्रत्यक्ष हुआ। प्रो. रानाडे के मतानुसार "ऋषभदेव ऐसे योगी थे जिनका देह के प्रति पूर्ण निर्ममत्व उनकी आत्मोपलब्धि का सर्वोपरि लक्षण था।" उत्तरकालीन भारतीय सन्तों के योगमार्ग में भी ऋषभदेव को उक्त मार्ग का मूल प्रवर्तक माना गया है। प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार न केवल सिन्धु घाटी के धर्म को जैन धर्म से सम्बन्धित मानते हैं.वरन् वहाँ से प्राप्त एक मुद्रा (नं. ४४९) पर तो उन्होंने “जिनेश्वर" (जिन