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७२ / योग-प्रयोग-अयोग
३. भाव वीर्य-भाव वीर्य का सम्बन्ध लेश्या के साथ जुड़ा हुआ है। आतरिक भाव जिस स्वरूप में उपस्थित होगा उसी रूप में वर्णादि लेश्या उभर कर आयेगी। तैजस् शरीर और तेजोलेश्या सहचारी है। दोनों में विद्युत चुम्बकीय तत्त्व है। इन्हीं तत्त्व के द्वारा भाव वीर्य का ऊर्वीकरण होता है। काषायिक वृत्तियों का परिवर्तन भाव वीर्य की देन है, क्योंकि वीर्य के पास विद्युत की शक्ति है, विद्युत के पास लेश्या की शक्ति है, लेश्या के पास तैजस् की शक्ति है और तेजस् के पास आत्म-लब्धियाँ हैं । इस प्रकार भाव वीर्य आत्म-लब्धि का वीर्य है।
वीर्य द्वारा साधक मन, वचन काया और श्वासोश्वास द्वारा योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और मन, वचन, काया और श्वासोश्वास रूप में परिणत करता है। इस परिणमन से सूक्ष्म कंपन पकड़ने में जो सक्षम होता है, वही भाव वीर्य है।
४. अध्यात्म वीर्य-शुभयोग से उत्पन्न सात्त्विक शक्ति को अध्यात्म वीर्य कहते हैं। आत्मवीर्य का परम उपाय जागृति का सातत्य है । मैं और शरीर सर्वथा भिन्न हैं ऐसी प्रतीति होना इन्द्रियजन्य व्यापारों से भिन्न संकल्प विकल्प से रहित, शारीरिक, मानसिक और वेदना जन्य तनाव से मुक्त अध्यात्म वीर्य होता है।
५. बाल वीर्य-जीवात्मा प्रमादवश जो भी प्रवृत्ति करता है वह बाल वीर्य है। प्राणी मात्र में राग का प्रवाह जितना तीव्र होता है उतना ही तनाव बढ़ता जाता है। मानसिक जटिलता और बौद्धिक उलझनें अनेक असमानता को पैदा करती हैं फलतः वस्तु स्थिति को यथावत् प्रकट नहीं होने देती हैं। अतः मन, वचन और कायिक शक्ति स्वाभाविक होने पर भी मानसिक हिंसा का चिन्तन करना बाल वीर्य है।
६. पंडित वीर्य-देहात्म भिन्नता का बोध होने पर आत्मवीर्य की निरन्तर उन्नति होती है। कर्मों का क्षय होता है और भावों की विशुद्धि होती है। ऐसे शुभ-अनुष्ठान से सच्चाई की सुरक्षा का प्रबन्ध होता है। सच्चाई स्वयं में क्या है यह आत्मवीर्य के पूर्व जाना नहीं जा सकता। जब तक हमारे ज्ञान सूर्य में विकृति के बादल छाये रहते हैं तब तक उस प्रकाश में आत्मानुसंधान नहीं किया जा सकता । आत्मानुसंधान के लिए चाहिए पंडित वीर्य का सम्यक सामर्थ्य । जब योगावस्था के आलंबन से सम्यक वीर्य स्फुरित होता है तब सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग ग्रहण होता है। इस प्रकार कर्म से अकर्म की ओर आत्मा की निरन्तर उन्नति विशेष अनुष्ठान रूप उपयोग को पंडित वीर्य कहते हैं ।
७. कर्म वीर्य-जो भी अनुष्ठान किया जाता है, वह कर्म वीर्य है अथवा कारण में कार्य का उपचार करके अष्ट प्रकार के कर्मों को कर्म वीर्य कहते हैं ।