________________
७६ / योग-प्रयोग-अयोग
महाभारत के बारहे शान्तिपर्व के २८६ वे अध्याय में
षड् जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । रक्तं पुनः सहयतरं सुखं तु हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ॥७॥
परं तु शुक्लं विमलं विशोकं इन वचनों से 'जीववर्ण' बतलाए हैं । कृष्ण, नील, रक्त, हारिद्र, शुक्ल और परम शुक्ल । महाभारत में जिन छ: वों का उल्लेख है वे ही छह वर्ण गोशालकमत में बतलाए गये हैं। पांतञ्जल, योग दर्शन के चौथे पाद के 'कर्म अशुक्लाकृष्णं योगिनः त्रिविध मितरेषाम्।' इस सातवें सूत्र में कृष्ण, शुक्लकृष्ण, शुक्ल और अशुक्लकृष्ण, इस प्रकार कर्म के चार विभाग करके जीवों के भावों की शुद्धि-अशुद्धि का पृथक्करण किया है। लेश्या शब्दार्थ ____ पाइअसद्दमहण्णवो कोश पृ. ७२८ में लेश्या शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे तेज, दीप्ति, किरण, मण्डल, बिम्ब, देह, सौन्दर्य, ज्वाला, आत्मा का परिणाम विशेष, आत्म-परिणाम निमित्त भूत कृष्णादि द्रव्य विशेष इत्यादि । अभिधान राजेन्द्र कोश भाग ६ पृ. ६७५ में लेश्या शब्द का अर्थ अध्यवसाय तथा अन्तःकरण वृत्ति के रूप में प्रयुक्त हुआ है। आप्त कोश पृ. ४८३ में लेश्या अर्थ में ज्योति शब्द प्रयुक्त हुआ है। भगवती सूत्र में सुख और वर्ण ये दो शब्दों द्वारा लेश्या का अर्थ प्राप्त होता है। संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ पृ. ९६७ में लेश्या शब्द प्रकाश उजियाला अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
बृहदवृत्ति ६५० पत्र में लेश्या शब्द का अर्थ आभा, कान्ति, प्रभा, छाया आदि मिलता है। गोम्मटसार में शरीर के वर्ण और आभा को द्रव्य लेश्या और विचार को भाव लेश्या कहा है।
यहाँ वणे, आभा और विचार पौद्गलिक और मानसिक रूप में हमारे सामने उपस्थित हुए हैं। इसमें वर्ण और आभा शरीर का बाह्य स्थूल रूप है किन्तु विचार सूक्ष्म है। विचार भावों के अनुरूप परिवर्तित होते हैं । भाव का सम्बन्ध कषाय के स्पन्दनों से और विचार का सम्बन्ध, मस्तिष्क के सम्बन्ध से जुड़ा हुआ है। मस्तिष्क में जैसे ही स्मरण, चिन्तन, चयन आदि का विश्लेषण होता है उसी प्रकार भाव तरंगित होते हैं। ये तरंगें अन्तःस्रावी ग्रंथियों से उठती हैं । तरंगों को उठने के दो द्वार हैं, एक ग्रंथियाँ और दूसरा नाड़ियों का समूह । दोनों मस्तिष्क और मेरुदण्ड से जुड़े हुए हैं। ग्रंथियों से भावों का साव होता है और नाड़ियों से विचारों का निर्माण होता है।