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योग-प्रयोग-अयोग/७७
जिस लेश्या का जैसा भाव होता है वैसे ही विचारों का निर्माण होता है। भाव, योग, लेश्या कषाय इत्यादि कर्म बन्ध के हेतु हैं । अतः भावों को विशुद्ध रखना परम आवश्यक है। भावों की शुद्धि तेजु, पद्म और शुक्ल गुणों से होती है। अतः श्वेत वर्ण, पीत वर्ण और रक्त वर्ण में सतोगुण होने से उसी का ध्यान श्रेयस्कर होता है। रक्त वर्ण का ध्यान सिद्धावस्था के लिए उपयुक्त है। श्वेत वर्ण का ध्यान अरिहंत अवस्था को प्राप्त करने के लिए उपयुक्त है और पीत वर्ण का ध्यान आचार्य पद की स्थापना के लिए प्रयुक्त होता है। लेश्या की परिभाषा
प्रज्ञापना की वृत्ति में "योग परिणामों लेश्या" योग के परिणाम को लेश्या कहा है। योग और लेश्या में अविनाभाव सम्बन्ध है। अत: जहाँ योग है वहाँ लेश्या है जहाँ लेश्या है वहाँ योग है। इस प्रकार जब तक लेश्या है तब तक संयोग है जैसे ही जीव अलेशी हुआ उसी समय अयोगी भी हो जाता है। अलेशी और अयोगी सिद्धत्व का लक्षण है।
सयोगी केवली शुक्ल लेश्या परिणाम में परिणमन करते हुए जब अवशिष्ट अन्तर्मुहूर्त में योग का निरोध करते हैं तब अयोगीत्व और अलेश्यत्व प्राप्त होता है। अंतमुहूर्त पूर्व योग और लेश्या का सम्बन्ध विद्यमान रहता है।
लेश्या एक प्रकार का पौदगलिक पर्यावरण भी है। अतः पुदगल और जीव का सम्बन्ध कराने वाला जिस प्रकार योग है उसी प्रकार योग का परिणाम लेश्या होने से लेश्या भी जीव और पुद्गल को संयोग कराने में सहयोगी है।
योग का परिणाम लेश्या है, इस परिणमन रूप लेश्या का प्रवाह बहाने का कार्य कषाय का है अतः दूसरी परिभाषा बन गई"योग पउत्तिलेस्सा कषाय उद्याणुरंजिया होई।" पुद्गलों से जीव प्रभावित होता है और जीव से पुद्गल प्रभावित होता है। दोनों का प्रभुत्व राग और द्वेष रूप होने से आत्मा के साथ शुभ और अशुभ रूप से लेश्या जुड़ी हुई है। लेश्या जैसी होगी मानसिक परिणति उसी धारा में प्रवाहित होती है। कषाय की तीव्रता और मंदता के अनुरूप शुद्धि और अशुद्धि होती है। अर्थात् लेश्या का वैसा ही पर्यावरण होता है। ____ "लिश्यते कर्मणासहआत्मा अनयेतिलेश्या"-जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होता है वह लेश्या है।
उपर्युक्त परिभाषा से प्रतीत होता है कि आत्मा कर्मों से लिप्त होता है किन्तु कर्मों को उजागर करने वाला मन, वचन और काय योग रूप भाव होता है। भाव का सम्बन्ध कषायगे के स्पन्दनों से है। हमारे सूक्ष्म शरीर में ये स्पन्दनों के भिन्न-भिन्न प्रभाव