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योग-प्रयोग-अयोग/७९
रूप
रूप चक्षु-इन्द्रिय का विषय है। मानव मात्र रूप में मंत्रमुग्ध होता है, क्योंकि रंग का आकर्षण अपने आप में एक बहुत बड़ा महत्व रखता है। पदार्थों में कोई मानव काला, कोई श्वेत, कोई रक्त, कोई नीले रंग का चुनाव करता है। रंग का हमारी ऊर्जाओं पर विशेष प्रभाव होता है। यदि रंगों का ध्यान किया जायेगा तो हमारी काले रंग की वृत्तियाँ श्वेत हो जायेंगी। हमारे बुरे विचार समाप्त हो जायेंगे। हमारी कामनाएँ शुद्ध भावनाओं में परिवर्तित हो जायेंगी।
चक्षु-इन्द्रिय का विषय चार अरब साठ खरब वायु कंपन प्रति सेकंड से प्रारम्भ होकर सात खरब तीस अरब प्रति सेकंड पर अन्त होता है। चार खरब साठ अरब वायु कंपन प्रति सेकण्ड पर लाल रंग का संवेदन होता है और सात खरब तीस अरब पर नीले रंग का संवेदन होता है।
अतः रूप की भावना, रूप की लेश्या, रूप के अध्यवसाय भी शुभ और अशुभ के प्रभाव से शब्द की तरह उपयोग और उपभोग का परिवर्तन लाता है। गंध
शुभ तीन लेश्याओं के संयोग से गंध सुगंधी होती है और अशुभ लेश्या के संयोग से गंध में बदबू आती है। अनुभव सिद्ध है जिसे क्रोध आता है उसका पसीना दुर्गंधी होगा। प्यार यदि वासनात्मक कामुकतायुक्त है, पसीने में बदबू आयेगी। हर पदार्थों में गंध है। हम जैसे पदार्थों का चयन करेंगे. वैसी गंध, वैसी भावना, वैसी लेश्या, वैसे विचार और वैसा आचरण उपस्थित होगा। अतः गंध का उपयोग करें उपभोग नहीं। उपभोग से गंध दुर्गंध हो जायेगी। गंध फेफड़ों की रक्षक है। फेफड़ों के वास्ते जैसी वायु की आवश्यकता है वैसी वायु को बताना घ्राण का कर्तव्य है अन्यथा कोमल फेफड़े विषैली वायु से घुटकर प्राणघातक हो जाते हैं ।
रस
खट्टे, मीठे आदि रसों की रुचि, आकर्षण और भोग का आस्वादन कराती है। स्वाभाविक रूप से प्रत्येक प्राणी मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों रस के प्रभावों से अनुभूत होता है । यह अनुभूति ही लेश्या है।
हमारे शरीर में शान्ति और पवित्रता के साथ-साथ वासनाओं को उत्तेजित करने वाली अनेक ग्रन्थियाँ हैं। जैसे पीयुष ग्रन्थि और जनन ग्रंथि से वासनात्मक भाव रूप